साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में मुनि संयमरत्न विजय ने व्रत रूपी आभूषण से विभूषित होने का अवसर ही पर्यूषण है। यह पर्व हमें अपने कर्तव्य पथ पर चलने का संदेश देता है। मानव भव ही एक ऐसा भव है, जिसमें मानव कुछ कर सकता है, बाकी नरक, तिर्यंच व देव गति में तो टाइम पास के अलावा कुछ नहीं। पर्यूषण पर्व के पहले दिन कहा जो हमारे आत्म प्रदूषण, कषाय दूषण व कर्मों की उष्णता दूर कर दे, वास्तव में वही पर्यूषण है।
अध्यात्म के महल में चढऩे की प्रथम सीढ़ी है-‘अमारि प्रवर्तन’ अर्थात् अहिंसा का पालन करना और करवाना। नीचे देखकर चलने से जीव जंतुओं की रक्षा होती है, ठोकर नहीं लगती और पढ़ी वस्तु भी मिल जाती है। दया धर्म का पालन करने से हमारा हृदय कोमल होता है, परिणाम स्वरूप हृदय रूपी धरती पर हम साधार्मिक भक्ति, क्षमापना, त्याग, तपश्चर्या आदि के बीज बो सकते हैं। धर्म का मूल ही दया है और बिना मूल के तो धर्म के फल और फूल नहीं खिलते। दूसरी सीढ़ी है-‘साधार्मिक भक्ति’। हमारी साधार्मिक भक्ति तभी सफल होगी,जब हम किसी जीव को आर्थिक, धार्मिक, शारीरिक, नैतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से सशक्त बनाएंगे।
शल्य के अभाव में सहधर्मी के प्रति वात्सल्य भाव जगना ही साधार्मिक भक्ति है। तीसरी सीढ़ी है-‘क्षमापना’ जिस प्रकार तृणरहित भूमि पर अग्नि गिरने से वह स्वयं ही शांत हो जाती है, वैसे ही क्षमा रूपी शस्त्र जिसके हाथों में है, उसका दुर्जन कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, वह स्वयं ही शांत हो जाता है। चौथी सीढ़ी है-‘अ_म तप’ आहार के प्रति आसक्ति घटाने के लिए ही हम अ_म तप करते हैं।
कोई कमी निकाले बिना मौन पूर्वक यदि हम भोजन कर लें तो समझना कि आहार के प्रति हमारी आसक्ति घट रही है। पांचवीं सीढ़ी है ‘चैत्य परिपाटी’-हमारे दर्शन की शुद्धि हो, दोष दृष्टि व दृष्टि दोष को दूर करने के लिए हम जिनालयों में जाकर परमात्मा का दर्शन-वंदन करते हैं।
इस प्रकार आत्मचिंतन द्वारा ही हम आत्मसिंचन कर सकते हैं। परस्पर एक दूसरे के सहयोगी बनकर, एक दूसरे के काम आना ही जीव का वास्तविक लक्षण है। श्वेतांबर-दिगंबर, तत्ववाद-तर्कवाद और न ही किसी का पक्षपात करने में मुक्ति है, अपितु कषायों से मुक्त होने में ही वास्तविक मुक्ति है।