जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सुरीश्वरजी म.सा. आदि ठाणा का श्री मुनिसुव्रत स्वामी नवग्रह जैन मन्दिर कोंड़ितोप में चातुर्मास हेतू मंगल प्रवेश हुआ।
तत्पश्चात् जैनाचार्य श्री ने आयोजित धर्मसभा में प्रवचन देते हुये कहा कि आभूषण पहनने से शरीर की शोभा बढ़ती है तो व्रत – नियम रुपी आभूषणों को धारण करने से आत्मा की शोभा बढ़ती है।
वर्षा ऋतु रुपी आषाढ़ चौमासी में विशेष व्रत नियमों को धारण करके आत्मा की शोभा बढ़ानी चाहिए ।
वर्षा ऋतु में चारों ओर जीवोत्पत्ति खूब बढ़ जाती हैं । उन जीवों की रक्षा के लिए आहार संयम करते हुए तप साधना अत्यंत ही जरुरी हैं। सर्दी के दिनों मे मनुष्य को आहार की आवश्यकता अधिक रहती हैं, और पानी की कम।
गर्मी के दिनों आहार की आवश्यकता कम रहती हैं ओर पानी की ज्यादा। जबकि वर्षाकाल में भोजन और पानी की भी कम आवश्यकता रहती हैं। तप साधना करने हेतू वर्षा ऋतु हमें सहाय करती हैं ।
इसी कारण वर्षा में तप ज्यादा होते हैं। आहार -निहार की हिंसा से बचने के लिए पूर्वकाल में अनेक महर्षि चातुर्मास दरम्यान चार महिने के उपवास कर लेते थे। भगवान महावीर ने भी अपने 12. 1/2 वर्ष के साधना काल मे 9 बार चार महिने के उपवास किये थे।
हमारे पास वह श्रेष्ट शारीरिक बल नहीं है कि हम चार महिने तक उपवास कर सके, फिर भी ज्ञानियों की आज्ञा है कि चातुर्मास के दिनो में अपनी शक्ति के अनुसार जितनी शक्य हो उतनी तप -साधना अवश्य करनी चाहिए।
श्रावको को विशेष रुप सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, परमात्मा पूजन, स्नात्रपूजा, विलेपनपूजा, ब्रह्मचर्य पालन, दान एवं तपश्चर्या के माध्यम से चातुर्मास को सफल करना चाहिए । एवं विशेष रुप से जिनवाणी का श्रवण करना चाहिए ।
जिनवाणी के श्रवण से लोभ तृष्णा शान्त होती हैं , क्रोधादि काषायों की आग बुझती हैं एवं पाप का मल दूर होता हैं । निरंतर पानी की बुंदे गिरने से तपा हुआ लोहे का गोला भी ठंडा हो जाता है तो जिनवाणी के निरंतर श्रवण से वज्र जैसा कठोर हृदय भी कोमल बन जाता हैं ।