आचार्यश्री ने साध्वियों के नवागत सिंघाड़ों से संतवृंद का कराया परिचय, खमतखामणा का रहा क्रम
रहुतनहल्ली, बेंगलुरु (कर्नाटक): आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी शुभारम्भ समारोह का तीन दिवसीय कार्यक्रम मंगलवार को सुसम्पन्न हुआ। इसकी घोषणा जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता महातपस्वी शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आज के कार्यक्रम के उपरान्त की।
महतपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में बेंगलुरु महानगर में स्थित भिक्षुधाम में तेरापंथ धर्मसंघ के दसमाधिशास्ता, युगप्रधान, प्रज्ञापुरुष आचार्य महाप्रज्ञ की जन्म शताब्दी समारोह के तृतीय दिवस पर भी चतुर्विध धर्मसंघ ने अपने आराध्य के प्रति अपनी प्रणति अर्पित की।
समारोह का शुभारम्भ आचार्यश्री महाश्रमणजी के मंगल महामंत्रोच्चार से हुआ। मुख्यमुनि मुनि महावीरकुमारजी ने अपने श्रद्धाभावों को अभिव्यक्त करते हुए कहा कि आचार्यश्री तुलसी ने आचार्य महाप्रज्ञ को ‘महाप्रज्ञ’ अलंकरण प्रदान करते वक्त कहा था कि जिसमें विद्या और साधना का पूर्ण समावेश हो, वह महाप्रज्ञ है।
हम सभी आचार्य महाप्रज्ञजी से प्रेरणा लेकर प्रज्ञावान बनने का प्रयास करें। साध्वीवर्या साध्वी संबुद्धयशाजी ने आचार्य महाप्रज्ञजी के संकल्पबल के प्रति अपनी प्रणति समर्पित करते हुए आचार्यश्री से उनकी तरह संकल्पवान बनने का आशीर्वाद मांगा।
तत्पश्चात् आचार्यश्री ने समुपस्थित श्रद्धालुओं को पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के जीवन में व्यवहार का महत्त्व होता है। एक-दूसरे से भाषा या काय के द्वारा आदमी जो आचरण करता है, वह उसका व्यवहार होता है। व्यवहार बुरा भी हो सकता है और अच्छा भी हो सकता है। जैसे आदमी किसी के प्रति गुस्सा करे, किसी को अपने हाथों से पीटने का प्रयास करे तो वह उस व्यक्ति का व्यवहार होता है। व्यवहार एक ऊपरी चीज है, अर्थात् वह दिखाई देने लगता है। जैसे आदमी आवेश में होता है तो उसका चेहरा तमतमा उठता है, आंखे लाल हो सकती हैं, मुख से कुछ गलत भाषा का भी प्रयोग हो सकता है। आदमी का वह व्यवहार नजर आने लगता है। आदमी के भीतर कुछ होता है, उसका व्यवहार वैसा होता है।
आदमी के भीतर का भाव अच्छा होता है तो उनका आचार व व्यवहार भी होता है।ं आचार्य का अपने शिष्यों के प्रति क्या व्यवहार होना चाहिए, एक शिष्य का अपने गुरु के प्रति क्या व्यवहार होना चाहिए। गुरु अपने शिष्यों के प्रति सम्मान और वात्सल्य का व्यवहार रखे, शिष्य गुरु के प्रति समर्पण और भक्ति का भाव रखे तो अच्छा होता है। आदमी अपने जीवन में व्यवहार को अच्छा रखता है तो उसका जीवन भी अच्छा हो सकता है। आचार्यश्री ने आचार्य महाप्रज्ञजी के संदर्भ में कहा कि परम पूज्य आचार्य महाप्रज्ञजी का व्यवहार बहुत अच्छा था। वे व्यवहार कुशल थे। उनमें मिलनसारिता, वात्सल्य आदि भरा हुआ था। बड़ों के प्रति विनयपूर्ण और छोटों के प्रति वात्सल्य और स्नेहपूर्ण भाव रहता था।
मंगल प्रवचन के पश्चात् आचार्यश्री ने वर्षों बाद गुरुकुलवास में पहुंचने वाली साध्वियों के विभिन्न सिंघाड़ों का संतवृंद से परिचय करवाते हुए खमतखामणा करवाया। तत्पश्चात् समणी नियोजिका मल्लीप्रज्ञाजी, साध्वी स्वस्तिकप्रभाजी, साध्वी ऋद्धिप्रभाजी, साध्वी आरोग्यश्रीजी, साध्वी जिनप्रभाजी, मुनि हेमराजजी, मुनि कीर्तिकुमारजी, मुनि जितेन्द्रकुमारजी व मुनि आकाशकुमारजी ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति देते हुए आचार्य महाप्रज्ञजी के चरणों में अपनी भावांजलि अर्पित की। साध्वी कंचनप्रभाजी आदि साध्वियां और साध्वी कीर्तिलताजी आदि साध्वियों ने गीत के माध्यम से अपने भावों के सुमन अर्पित किए।
मुनि गौरवकुमारजी, मुनि सुधांशुकुमारजी, मुनि अनुशासनकुमारजी तथा मुनि मृदुकुमारजी ने अपने बचपन के घटना प्रसंगों को सुनाते हुए अपनी विनयांजलि अर्पित की। समणी निमर्लप्रज्ञाजी व समणी विनयप्रज्ञाजी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। समणी कमलप्रज्ञाजी और समणी शुभमप्रज्ञाजी ने गीत के माध्यम से दसमाधिशास्ता को अपनी भावांजलि अर्पित की। तेरापंथ युवक परिषद और तेरापंथ महिला मण्डल की सदस्याओं ने संयुक्त रूप से गीत का संगान किया। आचार्यश्री ने जन्म शताब्दी वर्ष के गुरुकुलवास में आरम्भ हुए तृतीय दिवस कार्यक्रम की सम्पन्नता की घोषणा की।