श्री सुमतिवल्लभ जैन संघ बिन्नी में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने धर्म प्रवचन देते हुए कहा कि प्रशंसा की चाहत सांसारिक कष्टों का मूल है। इसकी चरम स्थिति आत्ममुग्धता गंभीर मानसिक विकृति है, जिसका उपचार जरूरी है। इसीलिए प्रतिफल की इच्छा रखे बिना अपने कर्तव्य में चित्त लगाएं।
चित्त कार्य पर रहेगा तो नाम की इच्छा ही न रहेगी। चित्त कार्य पर रहे या प्रतिफल पर, यह चयन अहम है क्योंकि दोनों की विपरीत परिणतियां हैं। मोटे तौर पर मनुष्यों के दो प्रकार हैं- कार्य करने वाले और श्रेय बटोरने वाले। पहली श्रेणी में सीमित व्यक्ति हैं, पर वे कर्मठ, अपेक्षाकृत संतुष्ट, आत्मवश्विासी और भवष्यि के प्रति आश्वस्त हैं। अधिसंख्य दूसरी श्रेणी में हैं। वे भीतर से क्षीण और भविष्य के प्रति आशंकित रहते हैं। आचार्य श्री ने आगे कहा कि कि प्रशंसा की इच्छाएं मनुष्य को अनिवार्यतः दुर्गति की ओर ले जाती हैं। व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके कार्यों से बनती है, जो प्रदर्शित किया जाए उससे नहीं। शोकेस में सजे मेडल, पुरस्कार, शील्ड व प्रशस्तिपत्र व्यक्ति की गरिमा का पैमाना नहीं होते।
ये जोड़तोड़ से भी हासिल कर लिए जाते हैं। इनमें कुछ, मात्र कंपनी में दीर्घकाल तक सेवारत रहने या ऑनलाइन गोष्ठी, काव्यपाठ आदि में उपस्थिति जैसे उथले आधारों पर वितरित किए जाते हैं। इसके विपरीत निष्ठा और मनोयोग से निष्पादित कार्य स्वयं बोलता है। उनका ढोल नहीं पीटना पड़ता, न ही साक्ष्य जुटाने पड़ते हैं। नि:स्वार्थ भाव से संपन्न कार्य आनंद देता है। पहली बार की अधपकी-अधजली रोटियां बनाकर आपकी नन्ही चाहती है कि उसकी तारीफ की जाए। छोटा स्कूली बच्चा भी कागज पर आड़ी-तिरछी आकृतियां बना कर शाबाशी की बाट जोहता है। कच्ची उम्र की इन अपेक्षाओं को अनुचित नहीं ठहरा सकते।
उन्हें खुला समर्थन देना जरूरी है। पर ढलती उम्र तक भी फेसबुक प्रोफाइल अपडेट के नाम पर उलटी जैकेट या तिरछी टोपी वाली पोस्ट पर क्या कहेंगे? यही ना कि आपकी संतुष्टि और खुशियों का दारोमदार हवाई लाइक्स और वाहवाहियों पर टिका है! अंत में आचार्य श्री ने कहा कि कार्य भलीभांति पूर्ण होने पर श्रेय का दावा करने और चूक होने पर दोष दूसरे पर मढ़ने वाला जीवन में प्रगति करने में अक्षम होता है। जहां बोया नहीं, वहां फसल काटने की चेष्टा प्राकृतिक विधान का उल्लंघन है और इसीलिए दंडनीय भी।