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वैराग्य का गुण प्रकट होने पर शांति का साम्राज्य निर्मित होता है: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिजी

वैराग्य का गुण प्रकट होने पर शांति का साम्राज्य निर्मित होता है: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिजी

 

 

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्यश्री केशरसूरिजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिश्वरजी म.सा. ने अध्यात्म कल्पद्रुम ग्रंथ के वैराग्य उपदेश अधिकार का विश्लेषण करते हुए कहा कि वैराग्य का मतलब है जो मोह, राग, द्वेष, संक्लेश खड़ा करे, वैसा स्नेह नहीं करना। हृदय में प्रेम की निर्मलता होनी चाहिए।

वैराग्य का गुण प्रकट होने पर शांति का साम्राज्य निर्मित होता है। ज्ञानी कहते हैं विषय का त्याग करना, विषय के संपर्क का त्याग करना, विषय के संबंध का त्याग करना, विषय के स्मरण का त्याग करना और विषय के छोड़ने के अहंकार का त्याग करना ही वैराग्य है। जहां मेरा तेरा भुला दिया, वहां वैराग्य आता है। ज्ञानियों ने त्याग के लिए विकल्प दिए हैं। प्रभु की साधना, सम्मान भी स्यादवाद है। प्रभु की करुणा तो सर्वपक्षी है। वे सभी जीवों के लिए एकसमान सोचते हैं। वैराग्य के फायदे बताते हुए उन्होंने कहा वैराग्य आने से राग और द्वेष मंद होते हैं।

उन्होंने कहा आश्चर्य है कि मृत्यु घेराव बनकर खड़ी है, श्मसान में हजारों लोगों को जाते देखा है, फिर भी लोग संसार के अनित्य पदार्थों के मोह में लीन है। जगत में सबसे सुखी वे हैं जो संतोषी है, जिन पर कर्मों का भार नहीं है। उन्होंने कहा ज्ञान नहीं है, फिर भी स्वीकार रहे, वह ज्ञानी है। ज्ञान है लेकिन विवेक नहीं है, वह अज्ञानी है। ज्ञान की प्रभावकता इतनी होती है कि वह अंधकार में दीपक का काम करता है। ज्ञान कम होगा तो चलेगा लेकिन समझदारी होनी चाहिए। उन्होंने कहा हमारी मृत्यु की तैयारी पहले से ही होनी चाहिए। मृत्यु का संकेत पहले मिल जाए तो ज्ञानी पुरुष प्रसन्न होता है। जिनशासन प्राप्ति का इनाम नहीं देता, पुरुषार्थ का इनाम देता है।

जिनशासन हमेशा एक कदम आगे चलता है, भाग्य से भी आगे चलता है। उन्होंने कहा हमारे जीवन में निर्मल बोध होना चाहिए। सारे गुणों को विकसित करने के लिए निस्पृहता और नम्रता का गुण होना चाहिए। हम कोई उत्तम कार्य करें, फिर भी पीछे रहें, ऐसी भावना होनी चाहिए, क्योंकि जिसके मन में कामना रहती है, उसकी नामना आखिर में तो नहीं रहती है। कोई कार्य शांत, सुरक्षित एवं निष्काम भाव से होना चाहिए।

आचार्यश्री ने कहा मन का नियंत्रण साधना का ही नहीं, संसार का भी मार्ग है। मन का नियंत्रण होने से वर्तमानकाल में काया और वचन मित्र बनकर चलते हैं। मन के नियंत्रण में होने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। उन्होंने कहा अस्वस्थ मन बेचैन हो उठता है, इसलिए अजीर्ण होने की संभावना अधिक रहती है।

उन्होंने सम्यकज्ञान, समझ और समर्पण का अर्थ समझाते हुए कहा इन तीनों का समन्वय ही ‘समाधि’ का उपाय है। एक पाप की सजा कई गुना मिल सकती है। कई बार बाहर का लक्षण अलग होता है, अंदर का हृदय अलग रहता है। समर्पण का मतलब है ज्ञान और समझ को लुटा देना यानी आगे वाले की मार खाकर भी उसका भला करना। उन्होंने कहा हमें किसी का तारक बनना चाहिए, मारक नहीं।

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