इस पंचम आरे में तीर्थंकर नही है लेकिन उनके प्रतिनिधी साधु साध्वी है। तीर्थंकर का माल बेचने का कार्य साधु साध्वी का है, श्रावक श्राविकाए उस माल के खरीददार है। छठे आरे में न जिनवाणी रहेगी, न साधु संत रहेंगे, न मकान, न दुकान न बाजार, न कपड़ा, न अन्न रहेगा। बिल में रहना पड़ेगा। आपकी पुण्यवानी प्रबल है आप भवी जीव है जो आप पंचम आरे में जिनवाणी सुन रहे है ।अभवी जीव जिनवाणी नही सुन सकता है। हमें अपने भीतर जो मोह माया है उसकी तिलांजली देकर जिनवाणी का पान करना है।
फूटा है बर्तन का पेंदा कैसे ठहरेगा पानी । तेरे घट के भीतर मोह माया का छेद है कैसे टिकेगी जिनवाणी । भगवान महावीर ने प्रवचन में राजा श्रेणिक के पूछने पर बताया की देवी देवता को हम चार बातों के द्वारा पहचान सकते है। पहला देवों की पलके नही झपकती है, दूसरा देवताओं को कभी पसीना नही आता है, तीसरा देवता धरती से चार उंगल ऊपर चलते है, चौथा देवों के गले की फूल माला कभी मुर्झाती है। उधर गुनशीलक उद्यान के बाहर से वह चोर दौड़ता हुआ निकलता है, उसने अपने कान को हाथों से बन्द किया हुआ है ताकि प्रभु महावीर की वाणी उसके कान में न पड़ जाए।
अचानक उसके पांव में काँटा चुभ जाता है, वह दर्द से कराह उठता है, और काँटा निकालने के लिये नीचे झुकता है और काँटे से काँटा निकालता है उस वक्त मजबूरी की वजह से उसके हाथ कान पर से हट जाते है और वो प्रभु की वो वाणी सुन लेता है जिसमें देवता के भेद बताए गए थे। थोड़ा आगे जाने पर शंका के आधार पर सैनिक उसे पकड़ लेते है। अभय कुमार के समक्ष प्रस्तुत करने के पूर्व उसे औषधी के द्वारा बेहोश कर दिया जाता है। जब वो होश में आता है तो उसके आसपास 32 नर्तकीया देवी के रूप में खड़ी थी। वो नर्तकियां कहती है देवलोक में आपका स्वागत है, पृथ्वी लोक में आपकी मृत्यु हुई है, आपने मनुष्य भव में बहुत सारे अच्छे कार्य किये इसलिये आपको देवलोक मिला है। आपका देवलोक में स्वागत है। रोहिणी चोर अपने आस पास के स्वर्ग जैसे माहौल को देखता है, लेकिन उसे शक हो जाता है, क्योंकि प्रभु महावीर की जो उसने अनमने मन से जो वाणी सुनी थी उसके अनुसार देवों की पलके नही झपकती है, जबकी उन नर्तकियों की पलके झपक रही थी, उन्हें पसीना भी आ रहा था, वो जमीन से चार उंगल ऊपर नही बल्कि जमीन पर ही खड़ी थी, और उनके गलों में जो पुष्प की माला थी उसके कुछ पुष्प मुरझा रहे थे, वो समझ जाता है की यह मुझे पकड़ने के लिए जाल बिछाया जा रहा है, वह बड़ी ही चतुराई से सभी सवालों के जवाब अपनी सुविधानुसार देता है और सबूत के अभाव में रिहा हो जाता है।
रोहिणी चोर सोचता है जब मैंने बिना मन से जिनवाणी सुनी तो आज मेरे प्राण बच गए, अगर में मन लगाकर सुन लूँगा तो मेरा बेड़ा पार हो जाएगा। रोहिणी चोर प्रभु की शरण में जाता है, अपने कर्मों का पश्चाताप करता है औऱ संयम जीवन अंगीकार करता है । और कठोर संयम पालन करके गति मुक्ति प्राप्त कर लेता है। पूज्याश्री गुरु अरुण कीर्ति जी मसा ने मेरे महावीर को जानो विषय को आगे बढाते हुए फरमाया की नयसार को सन्तो ने बोध दिया और कहा की तेरे भीतर अहंकार आ गया था इस वजह से तेरा पतन हुआ, सबके साथ मिलकर कार्य करो सब अच्छा हो जाएगा।
समर्पण जँहा होता है वँहा श्रद्धा होती है। लेकिन आजकल जँहा चमत्कार है श्रद्धा वँहा हो जाती है। जो महावीर के वचनों पर श्रद्धा रखता, वही व्यक्ति सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। प्रतिक्रमण में भी कहा जाता है की प्रभु आपने जो मार्ग दिखाया है वो ही सच्चा मार्ग है। नयसार को बात समझ में आ गई वो कलाप्रमुख के पास गया और माफी माँगते हुए पश्चाताप करते हुए कहा है आप सबके साथ काम करने का मुझे एक और अवसर दीजिये अकेले काम करने की जिद मेरी भूल थी।
कलाप्रमुख पारखी था, वह समझ गया की नयसार को अपने किये पर पछतावा है, कलाप्रमुख सभी कलाकारों को नयसार के साथ कार्यं करने के लिये राजी कर लेता है। सब मिलकर फिर से कार्य शुरू करते है, नयसार काम में मग्न हो जाता है और कुछ ही महीनों में 7 मंजिला एक बहुत ही सुंदर रँगमहल तैयार कर देते है। नयसार अपनी पत्नि के पास आकर कहता है हमनें एक भव्य 7 मंजिला रंगमहल बनाया है चल तुझे वो महल दिखलाता हूँ, पत्नि शिवा समझदार थी वो कहती है पहले कलाप्रमुख से आज्ञा ले लो फिर देखने चलेंगे नयसार फिर से गलती दोहराता है और कहता है इसमें आज्ञा की क्या जरूरत है, कलाप्रमुख मना नही करेंगे।
वो पत्नि को लेकर रंगमहल जाता है, और उसे सातवीं मंजिल तक ले जाता है, तभी अचानक आँधी तूफान आता है और वो दोनों पति पत्नि सातवीं मंजिल से सीधे नीचे गिर गए औऱ उनके प्राण निकल गए । दूसरे भव में प्रभु महावीर की आत्मा प्रथम देवलोक में जन्म लेती है, और अंख्यात वर्षों तक देवलोक का सुख भोग। नयसार की आत्मा अगले भव में क्या बनेगी ये आगे सुनने पर पता चलेगा।