कोलकाता. सीता वैदिक संस्कृति की साकार प्रतिमा और मर्यादा पुरुषोत्तम राम प्रत्यक्ष सनातन धर्म हैं। सत्संग भवन में संगीतमय राम कथा में श्रद्धालुओं को भाव-विभोर करते हुए आचार्य धर्मेन्द्र ने यह बात कही। उन्होंने कहा कि सनातन धर्म और संस्कृति को उनका दिव्य जीवन परिभाषित करता है। रामायण में सीता को जानकी कहकर संबोधित किया गया है। सीता मिथिला के राजा जनक की पुत्री थी इसलिए उन्हें जानकी कहा जाता है। सीता के पृथ्वी से प्रकट होते ही मिथिला में व्याप्त दुर्भिक्ष दूर हो गया, मेघ उमडऩे लगे और मूसलाधार वर्षा से सभी जलाशय परिपूर्ण हो गए।
बाल्यावस्था में ही उन्होंने शिव के दिव्य धनुष को अपना खिलौना बना लिया था। दुर्गा के सामान वे स्वयं भारत और लंका के राक्षस समूह का विनाश करने में समर्थ और सक्षम थीं लेकिन सीता-राम जीवन लीला का उद्देश्य संसार के सभी पति-पत्नियों को उनके कर्तव्य का बोध कराना था। संस्कृति, संस्कारों, धर्म और कर्तव्यों को परिभाषित करने का कार्य दोनों ने मिल कर सम्पन्न किया। धर्मेन्द्र ने कहा कि संस्कृत शब्द संस्कृति का अभिप्राय अंग्रेजी के कल्चर में व्यक्त नहीं हो सकता। संस्कृति आंतरिक (आभ्यंतर) है तो कल्चर बाहरी दिखावा।
विवेकीजन को कल्चर के प्रपंच को छोड़कर संस्कृति को ग्रहण करना चाहिए और मन-वचन-कर्म से धर्म को धारण करना चाहिये। सुमधुर भजनों की अमृत वर्षा से श्रोता भाव विभोर हुए। शंकरलाल हेतमपुरिया, परिवार के सदस्यों तथा पंडित लक्ष्मीकान्त तिवारी आदि ने व्यास पीठ का पूजन किया।