दिंडीवनम. यहां विराजित जयतिलक मुनि ने कहा संसार में भोगी जीव है। उनमें अनेक विरक्त आत्माए भी जन्म लेती है। जो सहयोग मिलने पर ऊचांईयों को छूती है। नीचे उगने वाली बेल को भी सहारा मिल जाता है।
आचार्य शुभमुनि के जन्मदिवस पर सभी श्राावक श्राविकाओं ने तीन तीन सामयिक की। उनका सांसारिक नाम पुखराज था। वे अपने नाम की तरह ही महान गुरु भी बन गए। पुखराज जब स्वर्ण पर बैठता है तो उसकी शोभा बढ़ाता है। ज्ञानियों ने संयम को, सम्यकत्व को सोना बताया है। सोने स्थिरता रहती है। आचार्य सोनी परिवार के थे। उनका परिवार उनके विवाह के लिए लड़की देख रहा था।
वे आत्मविरक्त थे। वे घर छोड़कर चले गए। रास्ते में पंडित मिले। उन्होंने पंडित को अपनी व्यथा सुनाई। पंडित उन्हें पीपाड़ में सतिया जी के पास ले गए। 16 साल की उम्र में वे सात भय से मुक्त हो गए। उनकी धर्म की स्थिरता, मन वचन कर्म की स्थिरता को देखकर उनको आचार्य चांदमल के पास भेजा। उन्होंने 17 साल की उम्र में उन्हें दीक्षा दी। यानि उन्होंने आठ कर्मो को तोडऩे की दीक्षा ले ली।
उन्होने जहां चातुर्मास किया लोग उन्हें पसंद करने लगे। वे एकदम सरल थे, वे पानी की तरह सबसे घुलमिल जाते थे। उनके आने के बाद संघ में सब शुभ होने लगा। उनका नाम शुभमुनि रख दिया। संघ का संचालन पंकज कर्नावट किया। धर्मसभा में सुवालाल, धर्मीचंद गोलेछा, पारसमल संकलेचा, संघ के अध्यक्ष प्रकाशचंद कर्नावट, सचिव विनोद सुराणा भी उपस्थित थे।