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विनय आत्मा का मूल स्वभाव : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरीश्वर

विनय आत्मा का मूल स्वभाव : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरीश्वर

◆ उत्तराध्यन सूत्र के प्रथम सूत्र का प्रतिपादन करते हुए विनय के साथ सम्यक् चारित्र की बताई महत्ता

चेन्नई : श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के प्रथम अध्ययन के पहले गांथा की विशेषना करते हुए कहा कि भगवान महावीर की वाणी को तन्मयता से, श्रद्धा भाव से सुन कर, स्वीकार करने पर, अंगीकार कर जीवन को सुधारा जा सकता है। हमारे भीतर अनन्त शक्ति का स्त्रोत है, जरूरत है, उसे प्रकट करना। आत्मा पर जो आवरण लगे हुए है, उसे हटाना होगा। जैसे पानी पहले से था, लेकिन जैसे ही उसके ऊपर के लगे चट्टानों, मिट्टी, कीचड़ को हटाकर कुआं खोदा जाता है तो पानी स्वतः प्रकट हो जाता है। हर आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन है, मात्र जैसे ही परिश्रम, साधना से उस पर लगे आवरण, बाधाओं को हटा दिया जाता है, वैसे ही केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्रकट हो जाता है।

★ हमारे भीतर भी है अनन्त शक्ति का खजाना

 आचार्य भगवंत ने कहा कि जैसे अंधेरे की उपस्थित तभी तक है, जब तक प्रकाश प्रकट नहीं हो जाता। स्वयं अंधेरा का इतना अस्तित्व नहीं है, घोर अमावस्या का अंधकार भी सूर्य के प्रकाश के प्रकट होने पर वह मिट जाता है। नियमित सफाई से कचरा जल्दी साफ होता है, वहीं दो-चार साल के बाद सफाई करने पर ज्यादा परिश्रम करना पड़ता है। उसी तरह हमारे भीतर भी अनन्त शक्ति का खजाना है, लेकिन पाप कर्म के आवरण से वह प्रकट नहीं होते। जैसे ही हमारे भीतर परमात्म बनने, साधु बनने की लालसा उत्पन्न हो जाती है, वह संसार को छोड़ देता है। भीतरी आनन्द, उल्लास को महसूस करता है। मुमुक्षु को रजोहरण प्राप्त होने के बाद उसका उल्लास निरन्तर बढ़ता ही जाता है, परम् आनन्द की स्थिति निरन्तर बनी रहती हैं, बढ़ती रहती है।

विशेष प्रतिबोध देते हुए आचार्यवर ने कहा कि संसार का ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो निरन्तर आनन्द देता हो। कितनी ही मंहगी गाड़ी ले आये, अच्छे कपड़ें ले आये, वे क्षणिक सुख देने वाले होते है, धीरे धीरे वह कम होता जाता है। वहीं अधिक मूल्यवान प्राप्त होने पर उसे छोडने में कोई दु:ख उत्पन्न नहीं होता। उसी तरह संयम रुपी रत्न को प्राप्त करने पर संसार के समस्त पदार्थ तुच्छ लगते है। आंतरिक गुणों के जागरण से आत्मा अपने मूल स्वभाव को प्राप्त कर लेती है।

★ निमित्त मिलने पर भी रहे अनासक्त

आचार्य प्रवर ने कहा कि उत्तराध्यन के 36 अध्ययनों में से एक भी अध्ययन का परायण कर लिया जाता, वह आत्म गुणों को प्राप्त करता है। प्रथम अध्याय में भी विनय को प्रकट करने की इच्छा व्यक्त की जाती है। बिना विवेक के कभी विनय प्रकट नहीं होता। विपरीत परिस्थितियों में भी कषायों की बहुलता में भी, निमित्तों के उकसाने पर भी जो अविनय नहीं करता, कुछ नुकसान को भी सहन कर लेता है लेकिन वह जानता है कि कुछ समय का अधर्म मुझे डुबो सकता है लेकिन विनय रुपी धर्म को अपनाने से वह जीवन को सफल बना सकता है। चिंगारी का निमित्त मिलने पर पैट्रोल ज्वलनशील बन जाता है और वही पानी के निमित्त पर वह चिंगारी बुझ जाती है। क्रिया क्रियाकांड नहीं, क्रिया को योग कहा गया है। पहले नमस्कार रुपी क्रिया का वर्णन है फिर अरहंत का नाम आता है। हमें वहीं क्रिया, योग से आत्मा के मूल गुणों को प्रकट करना चाहिए। विनय से ही सूत्र का प्रारंभ होता है, विनय से ही नमस्कार महामंत्र प्रारम्भ होता है, विनय से ही जीवन प्रारम्भ होता है।

★ सकारात्मकता का हो जीवन में वास

सकारात्मकता के आने पर नकारात्मकता स्वतः चली जाती है। दुर्गण इंतजार करते है, सदगुण आते ही वे चले जाते है। संतोष पैदा होते ही लोभ मिट जाता है। विनय से गुरु मराज के क्रोध को सहन करने से नवदीक्षित मुनि केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, उसी तरह हम भी विनय को हमारी पूंजी बनाये, उसे आगे बढ़ाये। रुप, रुपया नहीं अपितु संस्कार देखे। रुप तो चार दिन ठहरेगा जबकि संस्कार सदैव रहने वाला मूल है।

 ★प्रतिष्ठा मुहूर्त प्रदान करने हेतु विनती

श्री मुनिसुव्रत जिनकुशलसुरि जैन ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने गुरुदेव से रिथर्डन रोड में नूतन निर्माणाधीन जिनालय एवं दादाबाड़ी की अंजनशलाका प्रतिष्ठा हेतु मुहूर्त प्रदान करने की विनती की । गुरुदेव द्वारा प्रतिष्ठा का शुभ मुहूर्त अतिशीघ्र प्रदान करने का आश्वासन दिया गया ।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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