नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया श्री उत्तराध्ययन सूत्र में ग्यारहवे अध्ययन के अन्तर्गत बहुश्रुत का वर्णन है। ज्ञान पाने के लिए बाह्मय और आभ्यान्तर परिग्रह से मुक्त होना जरुरी है। ये संयोग कर्म बन्ध के कारण है। जो इन संयोग का त्याग कर देते है उन्हें आत्म ज्ञान में लीन होना चाहिए इस लिए भगवान ने सबसे पहले विद्या को महत्व दिया। विद्यावान व्यक्ति ही अहंकार का त्याग कर विवेक पूर्वक आचरण करता है। विनय + आचार = विनयाचार |
जो अहंकारी है उसे भगवान ने अश्रृत बताया। विद्या में बाधक है अभिमान और अभिमानी को कोई ज्ञान नही देना चाहता, विद्या भी नहीं आती। जैसे ही ज्ञान का अभिमान होता वैसे ही ज्ञान लुप्त हो जाता। वो अज्ञानी बन जाता है ज्ञान को टिकाने के लिए विनयवान होना आवश्यक है। जैसे -2 व्यक्ति में ज्ञान की वृद्धि होती है वैसे वैसे नम्रता बढ़नी चाहिए। स्थानक में प्रवेश करते ही गुरु वन्दना विधि सहित करना चाहिए जिससे अहंकार का विसर्जन होता है। भगवान कहते है जिसे झुकना आ गया वही पण्डित है क्योंकि विनय गुणों का राजा है। क्योंकि जहाँ विनय है वहाँ सभी गुण अपने आप समाहित हो जाते है। और अहंकार रूपी सूर्य आने से सारे गुण नष्ट हो जाते है। जिनको निमंत्रण की जरूरत पड़ती है वे अपने होते ही नहीं क्योंकि अपनों को निमंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती।
2) क्रोध :- क्रोधी भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता 3) प्रमाद :- मध, कषाय, विषय, निद्रा, विकथा एक व्यक्ति को दिया गया निर्देश पूरे संघ के लिए निर्देश होता है। विषय राग में पड़ कर व्यक्ति ज्ञानराग को छोड़ देता है। विषय राग ज्ञान प्राप्ति में बाधक है ये जहर के समान है जो ज्ञान पर आवरण डाल देता है। कषाय संसार को सींच कर दुर्गति रूप फल देते है। कषायी व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता। उसी निद्रावान व्यक्ति और विकथा करने वाला भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता। ज्ञानचंद कोठारी ने संचालन करते हुए बताया कि पटाखे फोड़ने से अनेक जीवों की हिंसा होती है और प्रदुषण भी बढ़ता है इसलिए इस दिपावली पर पटाखे नहीं फोड़ने वाले बच्चों को ईनाम दिया जाएगा।