किलपॉक श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ के एससी शाह भवन में चातुर्मासार्थ विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी महाराज ने प्रवचन में कहा कि समिति यानी सम्यक रूप से काया के व्यापार की चेष्टा करना। विधि से यदि यह करते हैं तो जयणा का पालन होता है। पाप करने से भी ज्यादा पाप, पाप की प्रशंसा करने से होता है। इससे निकाचित कर्मबंध होते हैं। इसलिए हिंसा की कभी अनुमोदना नहीं करनी चाहिए। मुक्त और संसारी क्रम की विवेचना करते हुए उन्होंने बताया कि मुक्त परोक्ष है, इसलिए संसारी के भेद पहले बताए गए हैं। मुक्त महान् है, इसलिए पहले क्रम में दिया गया है। जिस विषय की विवेचना लंबी होती है, उसका वर्णन बाद में किया जाता है। उन्होंने कहा कि विद्या वही है, जो मुक्ति के लक्ष्य से प्राप्त की जाती है। अन्नानूपूर्वी की साधना मानसिक समस्या से निजात पाने के लिए श्रेष्ठ है। कई बार आंखों से देखा हुआ और कानों से सुना हुआ गलत हो जाता है, इससे कई गलतफहमियां पैदा होती है। ज्यादा बोलने से स्वप्रशंसा व परनिंदा हो जाती है। गलत विचार तब पैदा होते हैं जब हम खाली दिमाग रहते है। जितना हो सके, अपने शरीर को कार्य में व्यस्त रखना चाहिए, इससे मन भी स्वस्थ रहता है। मजा तब आती है, जब मन में एकाग्रता होती है।
उन्होंने कहा कि कोई वस्तु लेते व रखते समय पूंजनी व प्रमाजन का उपयोग नियमित रूप से करना चाहिए, क्योंकि जीव कभी भी, कहीं भी पैदा हो जाते हैं। ईर्या समिति में जीव आराधना से बचते हैं। परमात्मा ने साधकों, साधु- साध्वी के लिए वाहन का त्याग करना बताया है। उनको पदयात्रा करने का ही बताया है। साधु को निष्पाप जीवन जीना है तो एष्णा समिति का पालन करना होता है। इसे दीक्षा समिति भी कह सकते हैं। उन्होंने बताया कि जैन साधु दीनता या लाचारी के साथ गोचरी लेने नहीं आता, वे धर्मलाभ का उच्चारण करते हुए आज्ञापूर्वक श्रावक के घर में प्रवेश करते हैं। फिर घर के अंदर उचित जयणापूर्वक वातावरण में ही गोचरी ग्रहण कर सकते हैं।