चातुर्मास के पावन अवसर पर भारत गौरव डॉक्टर वरुण मुनि जी महाराज ने अपने आज के प्रेरणादायी प्रवचनों में कहा कि “विचारों की शुद्धि ही आत्मा की सिद्धि का प्रथम सोपान है।” उन्होंने कहा कि मनुष्य के समस्त कर्म, उसकी वाणी और व्यवहार, उसके विचारों की ही प्रतिच्छाया हैं। यदि हमारे विचार निर्मल, सात्त्विक और करुणामय होंगे तो जीवन स्वयं ही पवित्रता और शांति से भर जाएगा।
मुनि श्री ने समझाया कि आत्मा की सिद्धि कोई बाहरी उपलब्धि नहीं, बल्कि अंतर की निर्मलता का परिणाम है। उन्होंने कहा — “मनुष्य जब अपने भीतर उठते विकारों, ईर्ष्या, क्रोध, और अहंकार को पहचानकर उन्हें साधना से रूपांतरित करता है, तभी वह आत्मबोध की दिशा में अग्रसर होता है।”प्रवचन के दौरान मुनि श्री ने यह भी बताया कि आज की भौतिक युग की प्रतिस्पर्धा में मनुष्य बाहर की उपलब्धियों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, जबकि वास्तविक प्रगति विचारों की पवित्रता में निहित है। उन्होंने कहा कि सकारात्मक चिंतन, संयमित वाणी और करुणामय दृष्टि ही वह साधन हैं जिनसे आत्मा का उत्थान संभव है।
मुनि श्री ने उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रेरित करते हुए कहा कि प्रतिदिन आत्मचिंतन, प्रार्थना और ध्यान को जीवन का अनिवार्य अंग बनाएं। उन्होंने कहा — “जब विचारों में शुद्धता आती है, तो आत्मा का दर्पण स्वच्छ हो जाता है और उसमें परमात्मा का प्रकाश सहज ही प्रतिबिंबित होता है।प्रवचन के पूर्व कार्यक्रम का शुभारंभ युवा मनीषी श्री रूपेश मुनि जी के मधुर भजनों से हुआ, जिनकी स्वर लहरियों ने वातावरण को भक्ति रस से भर दिया।”प्रवचन के अंत में मुनि श्री ने समस्त समाज को विचार, वाणी और व्यवहार की एकरूपता अपनाने का संदेश देते हुए कहा कि यही सच्चा धर्म और सच्चा तप है।सभा में बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे और मुनि श्री के दिव्य वचनों से आत्मिक शांति और प्रेरणा का अनुभव किया।