Share This Post

Featured News / Featured Slider / ज्ञान वाणी

विकट परिस्थिति में भी धर्म के प्रति श्रद्धा कम नहीं होनी चाहिए: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी महाराज

विकट परिस्थिति में भी धर्म के प्रति श्रद्धा कम नहीं होनी चाहिए: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी महाराज

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीजी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. ने नवपद के गुणों की विवेचना करते हुए कहा कि अरिहंत परमात्मा का सबसे बड़ा गुण यह है कि वे मार्गदर्शक है। मार्गदर्शक यानी यथार्थ प्ररूपणा, स्यादवाद ‌आदि। यह कार्य कोई दूसरा नहीं कर सकता। ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होने पर ही परमात्मा केवलज्ञानी बन सकते हैं। वे जीवात्मा की पात्रता, सामर्थ्य और समय देखकर उसे धर्म का मार्ग बताने की प्रेरणा देते हैं।

सिद्ध भगवंतों का गुण है कि वे अविनाशी है। अविनाशी यानी जिस सुख का कभी विनाश न हो। उन्हें अंदर का आनंद ही रहता है। जो सुख आने पर कभी जाता नहीं हो। आचार्य का गुण आचार शुद्धि व आचार संपन्नता है। ज्ञानी कहते हैं ज्ञान दिखता नहीं है, आचार दिखता है। उपाध्याय का गुण विनय होता है। साधु का गुण यह होता है कि वे ज्ञान, तप, प्रवचन, भक्ति में माहिर होते हैं। वे दूसरों की आराधना में सहायक बनते हैं। उनमें स्वार्थ, अभिमान, वैर नहीं होता है।

आचार्यश्री ने कहा कि अनुभव का ज्ञान सारे गुणों में श्रेष्ठ ज्ञान है। ज्ञान तीन तरह के बताए गए हैं पानी के जैसा यानी मात्र श्रुतज्ञान, दूध के जैसा यानी ज्ञान का चिंतन करना और अमृत के जैसा। निर्मल श्रद्धा, विनय संपन्नता आदि गुणों के द्वारा तीर्थंकर गोत्र बंध किया जा सकता है।

उन्होंने कहा कि श्रद्धा दृढ़ व निर्मल रखनी चाहिए। जब कोई आपका दोष बताए, तो तुरंत ही यदि हमें क्रोध आ जाए, तो समझना अपनी श्रद्धा कम है। कोई अपना दोष कहने वाला मिले, तो उसे अपना दोस्त समझना। ‌ कितनी भी विकट परिस्थिति हो, धर्म के प्रति श्रद्धा कम नहीं करनी चाहिए। आपको याद करना है तो वेदना, नारकी के परिणामों को याद करो। जब भी परमात्मा से मांगो तो सद्बुद्धि, सन्मति मांगनी चाहिए। परमात्मा की सच्ची भक्ति वही कर सकता है, जो प्रवचन श्रवण करता है। अपना सम्यक् दर्शन निर्मल है कि नहीं, यह प्रवचन श्रवण से पता चलता है।

उन्होंने कहा जगत के सबसे बड़े रोग तुलना, तृष्णा और तनाव है। हमें या तो तृष्णा को दूर करना या शांत करना या दान, त्याग, वैराग्य का मार्ग खोलना चाहिए। गुरु के पास जाकर दुःखों के कारणों को खोजना चाहिए। एक दो मिनट की आशातना के पाप का प्रायश्चित बहुत लंबा करना पड़ता है। हमें अपने पाप का खेद हरदम रखना चाहिए। हम आराधना का आनंद जितना रखते हैं, उतना ही पाप का खेद रखना चाहिए‌। पापों की आलोचना जितनी जल्दी हो सके, शुरू कर देनी चाहिए। उन्होंने कहा पापी का नहीं, पाप का तिरस्कार करो।

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar