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वास्तविक वचन तब ही कहने चाहिए जब वो प्रिय व हितकारी हो: उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी

वास्तविक वचन तब ही कहने चाहिए जब वो प्रिय व हितकारी हो: उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी

किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी ने प्रवचन में कहा कि योग शास्त्र की 21वीं गाथा में चारित्र का दूसरा सूत्र सत्य बताया है। हमें वास्तविक वचन तब ही कहने चाहिए जब वो प्रिय व हितकारी हो और उससे सबका भला हो। हिंसा का महातांडव शास्त्रों के अपात्र हाथों में आए ज्ञान के कारण है। वह ज्ञान मानव को राक्षस बनाने का प्रतिरूप है। जिन चीजों की ज्ञान देने की पात्रता नहीं है तो उन्हें ज्ञान नहीं दिया जाता है। ऐसा ज्ञान देने से नुकसान कारक होता है। दुनिया में ज्ञान तारक भी है और मार्क भी है।

उन्होंने कहा कि सत्य वह है, जो अहित करने वाला व अप्रिय नहीं होता हो। द्रव्यसत्य वह है जो जैसा है वैसा बोल देना। जिस सत्य से सामने वाले का भला हो, वह भावसत्य है। हमें इन दोनों का पालन करना है। दोनों में से किसी को बचाना है तो वह भावसत्य को बचाना है। ऐसी स्थिति में द्रव्यसत्य को किनारे कर देना चाहिए। सत्य जो दिखता है वह बोलता नहीं, जो बोलता है वह दिखता नहीं। ऐसे भावसत्य से दोष नहीं लगता। अगर गलत व्यक्ति की संगत में आकर जो गलत कार्य करते हैं वह भाव और द्रव्यसत्य से दूर हो जाते हैं। सत्य को भी हितकारी बनाकर बोलना चाहिए। जो मीठा बोलता है उसको हर जगह विशिष्टता मिल जाती है।

उन्होंने कहा कि साधर्मिकों के जीवन उत्थान का हमारा लक्ष्य होना चाहिए। आज हम जीवनोपयोगी हिंसक पदार्थो का उपयोग उसके विकल्प होने के बावजूद भी करते हैं। हम जिस चीज का विरोध करते हैं उन्हें घर में लाना बंद करना चाहिए। यदि हम कत्लखानों का विरोध करते हैं तो उससे बनी ऐसी कोई चीज का उपयोग घर में नहीं करना है। उन्होंने कहा कि जीवन में चार वशीकरण के मंत्रों को याद रखना चाहिए पहला प्रिय वचन बोलना यानी दूसरों का दिल नहीं दुखाना। शब्दों के माधुर्य को प्रस्तुत करना। दूसरा मंत्र है दूसरों के साथ विनय करना यानी दूसरों को आदर देना। हमारे अंदर कड़वा वचन पचाने की क्षमता होनी चाहिए। एक दूसरे को आत्मीयता के रूप में देखने से मैत्री बढ़ती है। तीसरा मंत्र दान करना यानी दूसरों के लिए जीना और चौथा मंत्र दूसरों के गुणों को ग्रहण करना यानी गुणदृष्टा बनना। प्रवचन के दौरान पंन्यास चंद्रशेखरविजय जी की पुण्यतिथि के उपलक्ष में गुणानुवाद हुआ। इस मौके पर उपाध्याय प्रवर ने बताया कि काल धर्म के बाद पंन्यास चंद्रशेखरविजयजी को युगप्रधान आचार्यसम की पदवी दी गई।

उससे पहले उनसे आचार्य की पदवी ग्रहण करने के लिए विनंती की गई लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया। हजारों युवाओं ने उनसे जुड़कर अपने धर्म की चेतना को जागृत किया। पंन्यास चंद्रशेखरविजयजी ने संयम जीवन में विशिष्ट वैयावच्च की आराधना की। वे आराधक, प्रभावक और जिनशासन के रक्षक थे। वे विनय आदि गुणों से परिपूर्ण थे। उन्हें जिनशासन का शेर कहा गया है। जिनशासन के अनेक कार्य उन्होंने अपने बलबूते पर किए। वर्तमान में उनके 136 शिष्यरत्न है।

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