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वाणी के जादूगर, श्रुताचार्य, साहित्य सम्राट उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री अमर मनि जी म.

वाणी के जादूगर, श्रुताचार्य, साहित्य सम्राट उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री अमर मनि जी म.

दक्षिण सूर्य डॉ. वरुण मुनि जी म.सा. ‘अमर शिष्य’ उत्तर भारतीय प्रवर्तक पूज्य भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज के प्रथम, प्रधान और अतिजात शिष्य हुए पूज्य श्री अमर मुनि जी महाराज। सितारों के मध्य जो महिमा सूर्य की है, मुनियों के मध्य वही महिमा अमर मुनीश्वर की है। उनके व्यक्तित्व में हिमालय की ऊंचाई और सागर की गहराई है। जिस संगीतमय माधुर्य से उन्होंने जिनशासन की महति-महति प्रभावना की वह विलक्षण और अद्भुत है। अमर गुरुदेव अनुपमेय हैं। उन्हें उपमित करने के लिए सभी श्रेष्ठ उपमान बोने प्रतीत होते हैं। उन्हें कहने में भाषा स्वयं को पंगु पाती है। अमर अलेख्य अक्षर हैं। वाचस्पतियों से भी अमरनहीं है।
सत्य के अनन्त पक्ष हैं। उसके सभी पक्षों का अंकन संभव नहीं है। अमर मुनीश्वर की महिमा के भी अनेक पक्ष हैं। उनका अंकन कैसे संभव हो सकता है? गूंगे केरी सरकरा… उस सर्वतोभद्र व्यक्तित्व के विषय में संकेत ही संभव
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पूज्य गुरुदेव श्री अमर मुनि जी महाराज का जन्म सन् 1936, वि.सं. 1993 , भादवा सुदी पंचमी के शुभ दिन क्वेटा बलुचिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) में एक श्री सम्पन्न मल्होत्रा क्षत्रिय परिवार में हुआ। आपके पिता का नाम श्री दीवानचन्द जी एवं माता का नाम बसंती देवी था। आपके माता-पिता राधा स्वामी मत के अनुयायी थे। सेवा और सद्भावना की प्रतिमूर्ति थे। सेवा, सद्भावना, सर्वधर्म-समन्वय, ईश-निष्ठा आदि सद्गुण आपको जनक-जननी से विरासत में मिले।
आप अनुक्रम से ग्यारह-बारह वर्ष के हुए। उस अवधि में हिंदुस्तान के विभाजन की त्रासदी घटित हुई। देखते ही देखते दो अलग धर्मों के लोग एक-दूसरे के रक्त के प्यासे हो गए। मानव के भीतर छिपी दानवता ने क्रूर ताण्डव किया। उस रक्त के सागर को बालक अमर ने अपनी आंखों से देखा, हृदय से महसूस किया। इतना ही नहीं, आपने स्वयं उस त्रासदी को भोगा भी। भरे-पूरे कारोबार को छोड़कर आपके पिता को अपनी जन्मभूमि से विस्थापित होना पड़ा। माता-पिता के साथ ट्रेन में सवार होकर आप भारत आए। ट्रेन में अपार भीड़ थी। अम्बाला रेलवे स्टेशन पर आप ट्रेन से उतरे। अपार भीड़ में पिता की अंगुली छूट गई। आप अकेले हो गए। निराधार-निराश्रित।

उन्मादी और संत्रस्त भीड़ के मध्य एक बारह वर्षीय एकाकी बालक की कैसी मन:स्थिति हो सकती है, इसका अनुमान लगाना संभव नहीं है। ऐसी विकट स्थिति में एक बालक द्वारा स्वयं को संभालना, उसकी विलक्षणता को प्रकट करता है।
संसार के समस्त आधार जहां ध्वस्त हो जाते हैं, वहीं पर धर्म, परम आधार बनकर उपस्थित होता है। घटाटोप अंधयारी काल-रात्रि के पश्चात् सूर्योदय होता है। पूर्वजन्मों का पुण्य-योग प्रकट हुआ। एक जैन श्रावक की दृष्टि आप पर स्थिर हुई। उन्होंने अनुमान से बालक की स्थिति को समझ लिया। आपसे वार्ता की तो उनका अनुमान सत्य सिद्ध हुआ। आपके माता-पिता को खोजने के लिए उन्होंने यथासाध्य श्रम किया, पर असफल रहे।
श्रावक जी दूरदर्शी थे। समयज्ञ थे। उनका हृदय जैन संस्कारों से अनुप्राणित था। एक अबोध निराधार बालक को मझधार में छोड़कर आगे बढ़ जाना उनके स्वभाव में नहीं था। उन्होंने बालक अमरनाथ पर पितृवत् स्नेह उंडेलते हुए कहा-“बालक! तुम चाहो तो मेरे साथ मेरे घर चल सकते हो! मैं तुम्हें पुत्रवत् रसुंगा।”
बालक अमरनाथ किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर श्रावक जी के साथ उनके घर लुधियाना आ गए। श्रावक जी अमरनाथ से अपने अंगजात पुत्र की भांति स्नेह करते थे। उनकी हर आवश्यकता का पूरा ध्यान रखते थे। _उन्हीं दिनों लुधियाना में एक वैरागन बहन का दीक्षा-महोत्सव हुआ। सुसज्जित रथ पर दीक्षार्थिनी बहन आसीन थी। बाजों की मधुर-ध्वनियां गूंज रही थीं। बालक अमरनाथ ने उक्त दृश्य को देखा। उनका मन रोमांच से भर गया। श्रावक
जी से महोत्सव के विषय में पूछा। उन्होंने संक्षेप में जैन-दीक्षा, जैन-मुनि-जीवन-चर्या और जैन धर्म के बारे में बालक अमरनाथ को बताया। इससे बालक की उत्सुकता बढ़ गई। उसने पूछा-“क्या मैं भी जैन साधु बन सकता हूं?”
बालक अमर के मुख से सहसा संन्यास अंगीकार करने की बात सुनकर श्रावक जी आश्चर्य-चकित हो गए। तब वे बालक को आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के श्रीचरणों में ले गए। श्रावक जी का अनुकरण कर अमर ने आचार्य देव को वन्दन किया। तभी आचार्य श्री की दिव्य वाणी उनके कानों में पड़ी-“अमरनाथ! तुम आ गए!”

आचार्य देव के श्रीमख से अपना नाम सनकर बालक अमरनाथ को बहत विस्मय हआ। उसने सोचाबलुचिस्तान से आया हूं। फिर ये मेरा नाम कैसे जानते हैं?” बालक इसी चिन्तन में था। तभी आचार्य देव ने कहा-“अमरनाथ! यह बहुत कष्टकर है कि तुम अपने माता-पिता से बिछुड़ गए हो! परन्तु इस घटना का एक शुभ पक्ष यह भी है कि तुम मेरे पास आ गए हो।”
विस्मित बालक अमरनाथ ने पूछा-“भगवन्! आप मेरे विषय में इतना सब कैसे जानते हैं? जबकि आपने मुझे प्रथम बार देखा है?”
आचार्य देव ने फरमाया-“अमरनाथ! तुम्हारा अतीत भी मैं देख रहा हूं और तुम्हारा उज्ज्वल भविष्य भी मेरे अन्तर्चक्षुओं में झलक रहा है। तुम उचित समय पर उचित स्थान पर आ गए हो।”
__ आचार्य देव का एक-एक वचन बालक अमर की आत्मा पर उटंकित हो गया। उसे लगा-जैसे जीवन को मंजिल मिल गई है… जैसे तूफानों में घिरी कश्ती को किनारा मिल गया है।
बालक अमर ने स्वयं को आचार्यदेव के चरणों में सर्वतोभावेन समर्पित कर दिया।
पूज्य आचार्य भगवन् ने प्रशिष्य श्री भण्डारी जी महाराज को अपने समीप बुलाया। बोले-“भण्डारी मुनि! आपने मेरी और गुरुजनों की बहुत सेवा की है। सेवा का परम फल होता है। वह परम फल आपको मिलना चाहिए।” ऐसा कहते हुए आचार्य देव ने बालक अमरनाथ का हाथ प्रशिष्य श्री भण्डारी जी महाराज के हाथों में सौंप दिया। पुनः बोले-“मुनिवर! यह अमूल्य हीरा मैं आपको प्रदान कर रहा हूं। इस हीरे को आप तराशो। यह आपके नाम को लोक में आलोकित करेगा। यह जिनशासन का महान प्रभावक होगा।”
श्रद्धेय श्री भण्डारी जी महाराज ने अपना मस्तक आत्मगुरु के चरणार्विन्दों पर रखा। परम कृतज्ञ भाव से उन्होंने सद्गुरु के अमूल्य अमर-प्रसाद को ग्रहण किया।
श्रद्धेय आचार्य श्री स्वयं बालक अमरनाथ के प्रथम अध्यापक बने। उन्होंने आरंभिक भाषा-ज्ञान और साध्वोचित-ज्ञान अमरनाथ को प्रदान किया। आप सुतीक्ष्ण मेधा के स्वामी थे। श्रद्धेय आचार्यदेव, श्रद्धेय पद्म गुरुदेव द्वारा प्रदत्त प्रत्येक सूत्र और सिद्धांत को आप तत्क्षण हृदयंगम कर लेते थे। शिक्षण का सिलसिला सतत चलता रहा।
कुछ ही वर्षों में बालक अमरनाथ ने दीक्षा की पूर्ण पात्रता अर्जित कर ली। परिणामस्वरूप श्रद्धेय श्री भण्डारी जी महाराज ने सोनीपत मण्डी में वि.सं. 2008, भादवा सुदी पंचमी, तदनुसार सन् 1951 में आपको दीक्षा मंत्र प्रदान किया। बालक अमरनाथ ‘अमर मुनि’ बन गया।
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दीक्षा के पश्चात् श्रद्धेय श्री अमर मुनि जी महाराज ने स्वयं को विधिवत् रूप से अध्ययन में नियोजित किया। हिन्दी, पंजाबी, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं को आपने सीखा। धर्म और दर्शन का व्यापक अध्ययन किया। आगम, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद, धम्मपद, गुरु ग्रंथ साहिब और संत साहित्य का आपने गंभीरता से पारायण किया। समग्र संघ में आप एक विद्वान मुनि के रूप में विश्रुत हुए।
आराध्य अमर गुरुदेव का अंतरंग एवं बाह्य व्यक्तित्व विलक्षण था। शरीर-सम्पदा अत्यंत प्रभावक थी। गौर वर्ण, ऊंचा कद, मस्तक पर विराजमान अपूर्व तेज, करुणापूर्ण आंखें, सुतीक्ष्ण शुक नासिका, स्वस्थ सुगठित शरीर, हंस तुल्य ललित गति, मुख-कमल से झरते अमृत-वचन, प्रशांत आनन पर सदैव विकसित रहने वाली स्मित मुस्कान-सब कुछ अद्भुत था। परिचित-अपरिचित प्रत्येक व्यक्ति आपके समक्ष नतमस्तक हो जाता था। प्रभास्वर आनन पर दर्शक की दृष्टि अपलक स्थिर हो जाती थी।अध्ययन के क्षेत्र में आपने शिखरों का स्पर्श किया। तत्पश्चात् श्रद्धेय पद्म गुरुदेव ने आपको जिनशासन की प्रभावना का दायित्व प्रदान किया। भजन-गायन से आपने धर्मप्रभावना का श्रीगणेश किया। आपके कण्ठ में माधुर्य का अमृत-कुण्ड निहित था। स्वर, छंद, लय, ताल निसर्ग से आपको वरदान स्वरूप प्राप्त हुए थे। जब आप गाते, तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते। एक-एक कण्ठ आपके सुर से सस्वर बनकर उद्गीत हो उठता। मानो अमृत का सागर (क्षीरसागर) लहलहा रहा हो।
__ कुछ ही वर्षों में आराध्य पद्म गुरुदेव ने आपको वक्तृत्व-कला, प्रवचन-कला में भी प्रवीण बना दिया। फिर प्रारंभ हुआ एक ऐतिहासिक स्वर्णयुग जिसने पूरे उत्तर भारत को जिन-प्रवचनों से, अमर-अमृत-निर्झरणी से रसाप्लावित बना दिया। उस युग को ‘अमर-युग’ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिन-प्रवचनों का ऐसा रससिद्ध प्रवाचक शायद ही कोई अन्य हुआ हो। अमर मुनीश्वर जब गाते और प्रवचन करते तो समय ठिठक कर ठहर जाता। पवन की गति में अलग ही मस्ती उतर आती। प्रवचन हाल की दीवारें हैरत से भर जातीं। श्रोता चित्र-लिखित-से हो जाते। दस, बीस, पचास नहीं, सहस्रों-सहस्रों व्यक्ति आज भी इस सत्य के साक्षी हैं कि अमर मुनीश्वर जब उद्गीत होते, तब गलियों और सड़कों पर चलते लोग ठहर जाते थे उन्हें सुनने के लिए। उनकी प्रवचन-सभाओं में पिनड्रॉप साइलेंस होता था। श्रोताओं की आंखें बंद और कान व हृदय के द्वार खुले होते थे।
वे जिस भी विषय पर बोलते, उसे समग्रतः श्रोता की अंतरात्मा में उंडेल देते थे। भक्ति-रस का स्पर्श करते तो श्रोता भगवद्भक्ति के अतल में उतर कर झूमने लगते। वीर रस को स्पर्श करते तो श्रोताओं की शिराओं में शौर्य मचलने लगता था। हास्य-रस का स्पर्श करते, तो श्रोता हंसते हुए लोट-पोट हो जाते थे। वैराग्य-रस प्रवाहित करते तो श्रोताओं के नेत्र-युगल गंगा-यमुना बन जाते थे। औदार्य को प्रकट करते तो लोग अपना सर्वस्व समर्पण करने को तत्पर हो जाते थे।
वे रस-सिद्ध ऋषीश्वर थे। माधुर्य के क्षीरोदधि थे। अद्भुत से भी अद्भुत थे। विलक्षण से भी विलक्षण थे। कमाल और बाकमाल थे। मधु से भी मधुरतम थे। वे अमृत के कोष अथवा अमृत का अवतार थे।
आराध्य अमर मुनीश्वर ने अपने प्रवचनों के माध्यम से लाखों-लाखों प्रसुप्त लोगों के हृदय पर जागरण की दस्तक दी थी। अगणित अजैन लोगों को उन्होंने दुर्व्यसनों के भंवर से बाहर निकाला। अगणित अजैन लोग उनसे प्रेरणा प्राप्त कर सत्पथ के राही बने।
आराध्य अमर गुरुदेव जनसेवा और समाजसेवा के प्रति विशेष जागरूक थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में शताधिक लोक-कल्याणकारी संस्थाओं की स्थापना कराई। हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल आदि प्रान्तों के गांव-गांव और शहर-शहर में गुरुदेव की पावन प्रेरणा से स्थापित संस्थाएं आज भी लोक-सेवा के कार्यों में समर्पित हैं।
एक विशेष तथ्य यह है कि आराध्य अमर गुरुदेव ने एक भी संस्था अपने नाम से नहीं बनाई। स्वयं द्वारा प्रेरित हर संस्था को उन्होंने भगवान महावीर, आत्म-भगवन् एवं पद्म-गुरुदेव के नाम को समर्पित किया। ऐसे नाम-निरपेक्ष, यश-जयी महर्षि कम ही होते हैं।
साहित्य के क्षेत्र में भी गुरुदेव ने अविस्मरणीय और ऐतिहासिक कार्य किये। उन्होंने जैन आगम-साहित्य को सर्वसुलभ और सर्वरुचिपूर्ण बनाने के लिए जो श्रम किया, वह सदैव स्मरण रखा जाएगा। मूल पाठ, हिन्दी अनुवाद, अंग्रेजी अनुवाद सहित विषयानुरूप ललित चित्रों के साथ उन्होंने आगमों को प्रकाशित कराया। यह आगम- श्रृंखला भारत सहित अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि देशों में बहु-प्रशंसित हुई। अन्य अनेक स्वतंत्र ग्रन्थ भी गुरुदेव की कलम से आकारमान हुए।
__ आराध्य अमर गुरुदेव का ब्रह्म-सृजन स्वरूप इस रूप में भी प्रकट हुआ कि उन्होंने शताधिक मुमुक्षुओं को अपने श्रीमुख से प्रव्रज्या मंत्र प्रदान किया।
अमर मुनीश्वर की, सिफ्तें अनन्त! कहां तक कहूं, कहता ही जाऊ!! तब भी कहां पार पाऊं?

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