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वह दु:ख सदा स्वीकार, जिसके पिछे धर्म हो : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

वह दु:ख सदा स्वीकार, जिसके पिछे धर्म हो : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

★ कर्तव्य बोध का पाठ पढ़ाते हुए घर में मर्यादा की बताई महत्ता

चेन्नई : श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के प्रथम अध्ययन के दूसरी गाथा में परिषह का विश्लेषण करते हुए कहा कि यह भाव दशा बहुत महत्वपूर्ण है कि दूसरों को सुख देने के लिए मैं दु:ख उठा सकता हूँ, उसमें मुझे किसी भी प्रकार की समस्या नहीं है, वह धर्म है। जीवन में वह दु:ख सदा स्वीकार करना, जिस दु:ख के पिछे धर्म हो। वह दु:ख सदा स्वीकार करना, जिसके पिछे पाप न हो और वह दु:ख भी सदा स्वीकार करना, जिसका परिणाम आत्म कल्याण हो। उस दु:ख को स्वीकार करने में सदा सदा प्रसन्नता का अनुभव करना। वह दु:ख स्वीकार करने योग्य नहीं है, वह सुख भी स्वीकार करने योग्य नहीं है जिसके पिछे पाप होता हो।

◆ चोट हमेशा अहंकार ग्रस्त मन को पड़ती

 आचार्य प्रवर ने जन प्रतिबोधन देते हुए कहा कि बहुत गहराई से विचार करने योग्य है कि सामने वाले के शब्दों से क्रोध आता है या सामने वाले ने कुछ कहा जिससे मेरे हृदय पर चोट पड़ी उसके कारण या हमने अपने हृदय पर चोट का अनुभव किया, उसके कारण।

चोट हमेशा अहंकार ग्रस्त मन को पड़ती है। अहंकार फन फैलाता है। जब मैं चोट का अनुभव करता हूँ, तब में आक्रोश करता हूँ। अगर सामने वाला कुछ भी कहें, कुछ भी करे, अगर आप स्वीकार नहीं करते है तो उसका मालिक वह स्वयं रह जायेगा। जीवन में शांति का अनुभव करना चाहते है, समाधि में रहना चाहते है, प्रसन्नता से जीना चाहते है तो चोट को स्वीकार ही न करों, लौटा दो। लौटाने पर उन शब्दों का मालिक भी वहीं है, स्थितियों का मालिक भी सामने वाला ही है। आप प्रसन्नचित रह सकते है, सुखी रह सकते है।

◆ अपने प्रति कर्तव्य भाव से अध्यात्म का होता प्रारम्भ

 गच्छाधिपति ने आगे कहा कि एक शब्द महत्वपूर्ण है। उस शब्द का अर्थ और उस शब्द का रहस्य जीवन में उपस्थित हो जाये और हर समय वह हमारी ललाट पर लिखा हो। हमारी आँखों में वह शब्द तैरता हो। हमारे भावों में उस शब्द की परिभाषा परिलक्षित होती हो। हर क्षेत्र में चाहे संसार का हो या अध्यात्म का, धर्म का हो या समाज का, परिवार का हो या स्वयं व्यक्ति के अस्तित्व का क्षेत्र हो।

वह शब्द हमें चलना सिखाता है, बैठना सिखाता है, उठना सिखाता है, रोना सिखाता है, हँसना सिखाता है, मुस्कुराना सिखाता है, आगे बढ़ना सिखाता है, कहां रुकना, कहां चलना है, सिखाता है। *हिन्दी भाषा का वह शब्द महत्वपूर्ण है और वह शब्द है- कर्तव्य बोध।* बड़ा सीधा सादा शब्द है, हम रोज सुनते हैं। इसकी व्याख्या को ह्रदय में उतार दे। मेरा कर्तव्य क्या है? किन परिस्थितियों में क्या है?

कर्तव्य बोध का विचार तो प्रतिपल चलता रहता है। गुरु सोचता है कि शिष्य का हमारे प्रति क्या कर्तव्य है और शिष्य सोचते है कि गुरु का हमारे प्रति कर्तव्य क्या होना चाहिए।

संसार में भी सारे सम्बंधों में हम दूसरों के कर्तव्य के बारे में विचार करते है। जब भी हम दूसरों के कर्तव्य पर विचार करेंगे, तब तब हमारे हृदय में आक्रोश पैदा होगा, परेशानियाँ पैदा होगी, समस्याएँ उत्पन्न होगी। क्योंकि हम दूसरों के कर्तव्यों पर विचार करते हैं, तो सुक्ष्म दृष्टि से विचार करते है। उस समय हम स्वयं को भूल जाते है। स्वयं की स्थितियाँ, स्वयं की परिस्थितियाँ, अपने कर्तव्य को विस्मृत कर जाते है। अगर मैं संसार में हूँ, तो यह चिन्तन रहना चाहिए कि मेरा कर्तव्य क्या है? माँ के प्रति, परिजनों के प्रति, समाज के प्रति।

कर्तव्य और कर्तव्य केवल दुसरो के प्रति का ही चिन्तन नहीं, अपितु यह विचार करें कि मेरा अपने प्रति कर्तव्य क्या है और वहीं से अध्यात्म का प्रारम्भ होता है। जब यह विचार धारा चलती रहती है कि मेरा अपने प्रति क्या कर्तव्य है, अपने भविष्य के प्रति क्या कर्तव्य है। अपने चेतन तत्व के प्रति मेरा कर्तव्य क्या कहता हैं। *साधना का अर्थ होता है- कर्तव्य बोध।*

विशेष पाथेय प्रेरणा प्रदान करते हुए गुरुवर ने कहा कि सभी चिन्तन करें कि हमारा हमारे परिवार के प्रति क्या कर्तव्य है, हम कहां तक निभा पा रहे है और कुछ कमी है तो, चिन्तन पूर्वक विचार कर सही करें। घर में मर्यादा, अनुशासन से सभी सुखी रह सकते है। स्वस्थ जीवन जी सकते हैं। आधुनिक चकाचौंध में अपने सस्कारों को नहीं भूलें।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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