किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी ने योगशास्त्र ग्रंथ की विवेचना करते हुए कहा कि मनोगुप्ति में अनंत संसार को बढ़ाने और घटाने की क्षमता है। मनोगुप्ति रखने से स्वयं को व दूसरों को बचाने की ताकत है। यदि हम दूसरों का अच्छा करने की सोचें, तो सामने वाले को कुछ पुण्य होने वाले नहीं। इसका पुण्य स्वयं को ही मिलेगा। इसलिए परमात्मा ने भाव हिंसा से बचने की बात बताई है। अपना आत्मदमन करना ही श्रेष्ठ दमन है। तप कर्म निर्जरा के लिए बताया गया है। वचन- काया से पाप नहीं कर रहे हैं लेकिन विचारों द्वारा पाप करते हैं, तो वह भाव हिंसा है।
उन्होंने कहा कि प्रतिक्रमण यानी उदय में आए हुए कर्मों को निष्फल करना। तप करते समय मन में खाने की भावना आई तो उसका निरोध करना चाहिए। तप की शुरुआत में यदि ऐसे भाव आते हैं तो कर्मबंध नहीं होते है। अपने अंदर क्रोध आया तो उसे खत्म करने का उपाय क्षमा की बंदूक है। जब व्यक्ति के अंदर धर्म नहीं होता, वह वचन- काया से हिंसा नहीं करता है लेकिन भावों से ऐसा करते तो कर्मबंध चालू हो जाते हैं।
उन्होंने कहा कि जिन उपकारियों ने आपके इस भव को उठाया है, आप उनके भव को अच्छा बनाओ। सुकृत अनेक तरह से किया जाता है। समाधि मरण मिले, ऐसा निमित्त बनाओ। पंडित मरण को विरति का फल बताया गया है। मन के अंदर फरक आने से फल का फ़रक आता है। एक बाल चमड़ी से निकालने पर हम ऊपर नीचे हो जाते हैं, तो हमारे आत्म प्रदेश को टिकाना अति मुश्किल है। हमें संसार में देखने को मिलता है कि व्यक्ति अधिकार के लिए बड़ा हंगामा खड़ा कर देता है। पशु के अवतार में भी ये संस्कार पड़े होते हैं।
उन्होंने कहा कि दूसरों का विचार धर्म का पहला पगतिया है। हमें किसी को छोटा नहीं समझना चाहिए। कोई भी आत्मा तीर्थंकर या गणधर की भी हो सकती है। इसलिए हमें साधर्मिक बंधु से कोई पूर्वाग्रह नहीं रखना चाहिए। सबमें तीर्थंकर या गणधर की पात्रता रहती है, इसलिए साधर्मिक बंधु का हमेशा सम्मान करना चाहिए। संघ भावना हमारे अंदर आए तो तीर्थंकर नाम गोत्र का बंध भी हो सकता है। संघ के प्रति सद्भाव रखा तो अंतिम समय में हमें सहजता से समाधि मिलेगी। हमें ज्यादा से ज्यादा जीवदया में जीवन बिताना चाहिए। जीवदया के कारण ही मेघकुमार को अंतिम समय में समाधि मिली।