चेन्नई. वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा अठारह पापों में से छह पाप का सेवन वाणी के दुष्प्रभाव से होता है। मधुर वाणी का प्रयोग करने से वचन पुण्य का भी उपार्जन हो सकता है। शरीर से निकले हुए प्राण, कमान से निकला हुआ तीर, जिस तरह वापस लौट के नहीं आते हैं, उसी प्रकार मुंह से उच्चारित वचन भी वापस नहीं आ सकते।
शरीर पर हुए घाव तो मरहम पट्टी करने से कुछ समय बाद ठीक हो जाते हैं, लेकिन कठोर वचनों द्वारा सामने वाले के हृदय में होने वाले घाव लंबे समय तक दुख का कारण बनते हैं। शब्दों के दांत नहीं होते लेकिन दर्द काटने से भी ज्यादा होता है। वाणी का विवेक रखने से जीव पाप कर्मों के बंध से बच जाता है। श्रावक के वचन व्यवहार के अंतर्गत उसे कड़वे वचनों का प्रयोग न करते हुए मधुर वचन बोलने चाहिए।
जिस किसी को भी बोलने की कला आती है वह अपने सभी काम आसानी से संपूर्ण करवा लेता है। वचन से ही काम बनता और बिगड़ता है। लाठी और पत्थर से तो हड्डियां टूटती हैं, लेकिन शब्दों से संबंध ही टूट जाता है। मीठी वाणी बोलने वालों को दूसरे लोग भी पसंद करते हैं, जबकि कौवे जैसे करकस वचनों का प्रयोग करने वाले हर स्थान से दूत्कारे जाते हैं।
जयपुरन्दर मुनि ने कहा धर्म की उत्कृष्ट प्रभावना प्रवचन के माध्यम से होती है। जैन साधु साध्वी मात्र प्रचारक ही नहीं अपितु प्रभावक भी होते हैं। उनके आचरण से सामने वाले पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह खुद ही नतमस्तक हो जाता है। प्रभावना के आठ प्रकारों का उल्लेख करते हुए कहा स्वयं के ज्ञान और आचरण का ही दूसरों पर प्रभाव पड़ता है।
काव्य सर्जन एवं साहित्य के द्वारा भी धर्म की प्रभावना होती है। साहित्य अमर माना जाता है, जिसका कोई अंत नहीं कर सकता। आचार्य जयमल ने भी अपने जीवन काल में ढाई सौ से अधिक काव्य रचनाएं सृजित की जिसके कारण वे अमर बन गए। मुनिवृंद के सान्निध्य में रविवार का विशेष प्रवचन सुबह 9.30 बजे और जयमल जैन आध्यात्मिक ज्ञान ध्यान संस्कार शिविर का आयोजन दोपहर एक बजे से होगा।