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ज्ञान वाणी

लोभ, माया और अहंकार होंगे तीर्थंकर शरण से दूर: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

लोभ, माया और अहंकार होंगे तीर्थंकर शरण से दूर: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

16 अक्टूबर से आयंबिल ओली की आराधना

चेन्नई. शुक्रवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रेक्टिल लाइफ सत्र में युवाओं को अपने अन्तर की शक्ति को जागृत करने के लिए सामायिक सूत्र के प्रयोग बताते हुए कहा कि हम जो भी तप करते हैं, अखंडित करें। यदि मन में विकार आ भी जाए तो उसे भंग न करें। जब आपका नियम पालन अखिंडित होगा तो आपका प्रत्येक कर्म धर्म में परिवर्तित हो जाएगा। प्रत्येक कर्म परमात्मा के स्मरण के साथ करें कि अपने मन, वचन, काया तीनों से आपनी आत्मा को अलग करके कर रहे हैं। जैसे-जैसे साधना होती जाएगी उच्चता को प्राप्त होती जाएगी।

सामायिक करते हुए हम सावध्य को रोकते हैं और बुरे विचारों को ग्रहण नहीं करते और स्वयं की शक्ति का संचयन करते हैं। परमात्मा ऐसा समर्थ बनने का कहते हैं कि मैं मन, वचन काया से ऐसा कुछ नहीं करूंगा कि दूसरे के मन में पाप या बुरे विचार आ जाए, अपनी उपस्थिति में किसी भी बुरे कार्य को होने नहीं देंगे और जो भी विराधना हुई है उसकी निन्दा, तिरस्कार करके छोड़ता हंू। इस तरह आप पापों और बुराईयों का तिरस्कार करते हुएछोड़ देंगे तो वे आपके जीवन में पुन: नहीं आएंगे और आपकी साधना शुरू हो जाएगी।

तीर्थंकरों की आत्मकल्याण के साथ लोककल्याण की भावना होती है। वे कर्मक्षय के साथ पुण्यों का उपार्जन भी करते हैं। कोई व्यक्ति एक बात कहे तो दूसरे व्यक्ति नहीं मानते हैं और वही बात कोई दूसरा कहे तो लोग उसे स्वीकार कर लेते हैं, यह उस व्यक्ति के पुण्यों का प्रभाव हेाता है। इसी प्रकार तीर्थंकर परमात्मा एक ही भाषा में बोलते हैं लेकिन उनके वचनों को देव, मनुष्य, पशु, पक्षी सभी जीव समझते है कि परमात्मा मेरी ही भाषा में बात कर रहे हैं और मुझे ही समझा रहे हैं, वे इसमें अपना समाधान पाते हैं और स्वीकार करते हैं। जिस प्रकार गीत कोई भी हो लेकिन संगीत हो तो उसका प्रभाव ज्यादा होता है। कोई भी भाषा अक्षरों से बनती है लेकिन उसका अर्थ ध्वनि से होता है।

इसे समझने वाले मोक्ष और स्वर्ग में जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं लेकिन जो नासमझी और अहंकार की दीवार को मन में बना लेता है वह इसे नहीं समझ पाता और अनन्त भवों का बंध कर लेता है। जमाली और गौशाला ने परमात्मा के ज्ञान को अस्वीकार किया और झूठ कहा, उन्होंने अपने अनन्त संसार का बंध कर लिया। परमात्मा ने जो ज्ञान दिया है इसकी अवहेलना न करें, गौशालक और जमाली बनेंगे तो सारे पाप जीवन में स्वत: आ जएंगे। सारे पुण्य, तप, साधना सभी उल्टे चलने लगेंगे, इससे बढक़र अन्य दुर्भाग्य और कोई नहीं।

परमात्मा की ऐसा साधना है कि उनका एक-एक शब्द से कमल पुष्प झरते हैं, उनके एक एक पग पर कमल पुष्प आ जाए। उनका मन, वचन, दृष्टि, काया व संपूर्ण जीवन ही कमल के समान और अलौकिक कांतिमय है। सूर्य प्रभा से जैसे अंधकार मिटता है वैसे ही सारे नक्षत्र, तारे मिलकर भी नहीं मिटा सकते, इसी प्रकार का आपका ऐश्वर्य है जिसे आपने जगत को मूलधर्म प्रदान करने और जगत का कल्याण करने में लगाया है।
अहंकार आने पर नशा आता है और चापलूसों का घेरा व्यक्ति को घेरता लेता है और वह व्यक्ति अपनी मर्यादा भूलकर तथा शालीनता को रौंद डालता है इस प्रकार का अहंकार आपके दर्शन मात्र से नष्ट हो जाता है। मुझे जब इस तरह का अहंकार घेरे तो मैं आपके दर्शन अपने अन्तर में करूं और चाहे कितने भी चापलूसों का घेरा हो, मैं इससे मुक्त हो जाउं।

आचार्य मानतुंग कहते हैं कि क्रोध में व्यक्ति को अपनी स्थिति का भान नहीं रहता है और वह अपनी सारी प्रतिष्ठा को बर्बाद कर देता है। मेरे मन में जब भी क्रोध की भावना आए तो परमात्मा के चरणों का आश्रय ले लें, इनमें अन्तर के माया के दावानल को जला देने की क्षमता है।

माया, कपट और चीटिंग करने से अन्तर की साधना और धर्म के बीज जल जाते हैं। तथ शुक्लध्यान से कर्मों के बीज नष्ट हो जाते हैं। माया के कारण ही जीव तीर्यंच योनी में अनन्त भवों में भटकता रहता है, यह भयानकता है तीर्यंच गति की। ऐसी माया की आग बुझाने के लिए परमात्मा के नाम कीर्तन का जल ही काम आता है। तीनों प्रकार के कषाय लोभ, माया और अहंकार को नष्ट करने के लिए एकमात्र प्रभु की शरण ही है। जिसमें ये तीनों रहते हैं वह जहरीले नाग समान है। लोभ से मुक्त होने के लिए प्रभु नाम की मणी हृदय में रखें। परमात्मा के प्रकाश से ही हृदय के अंधकार मिटते हैं। परमात्मा के चरणों का आश्रय मिले तो कैसा भी तूफान आ जाए राह मिल जाती है। आचार्य मानतुंग लोहे की बेडिय़ों में जकड़े होने पर परमात्मा के नाम का मंत्र का चिंतन करने से टूट जाती है। आठों भय से मुक्ति मिलती है। जो आपके एक-एक शब्द को कंठ में धारण करता है उसके पास लक्ष्मी भी मजबूर होकर आती है।

तीर्थेशऋषिजी ने कहा कि अहिंसा का जीवन जीने वाले और जिसका मन धर्म में हो उसे तो देवता भी नमन करते हैं। धर्म करते हुए भी धर्म की भावना मन में होनी चाहिए। धर्मभावना से व्यक्ति में दिव्यता प्रकट होती है। परमात्मा का ध्यान करते हुए जो भी कार्य करेंगे वह प्रत्येक क्रिया धर्म में बदल जाती है।

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