चेन्नई. लोभ के वशीभूत अपनी संस्कृति से अलग हो जाता है। लोभ तो पाप का बाप है। लोभ मजीठ के रंग जैसा है। जो कभी उतरता ही नहीं। लोभ का जन्म मन की चंचलता और निरंकुशता से होता है।
एसएस जैन संघ ताम्बरम में विराजित साध्वी धर्मलता ने कहा कि जितनी कम होगी मांग की मात्रा उतनी सफल होगी जीवन की यात्रा। मानव का मन बड़ा विचित्र है। जो उसके पास है वह उससे संतुष्ट नहीं होता है और जो दूसरों के पास है उसे पाने के लिए वह उत्सुक रहता है। वह हक का नहीं हराम का खाना चाहता है।
श्मशान की अग्रि और पेट की तरह लोभ का गड्डा भी कभी भी भरता नहीं। इंसान के मन में काम, क्रोध , मद , लोभ की ज्वाला जब जागृत हो जाती है तब वह पंडित होते हुए भी मूर्ख जैसे कार्य करता है। इसलिए कहा गया है कि लोभ दुख का कारण है और संतोष सुख का कारण है।
साध्वी सुप्रतिभा ने कहा कि जीव कर्मों के अनुसार भुगतान करता है। सातवेदनीय कर्म का बंध गुरु भक्ति , दया, क्षमाशीलता , दान , कषाय विजय और धर्म दृढ़ता से होता है।