चेन्नई. बुधवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर, पुरुषावाक्कम, चेन्नई में चातुर्मासार्थ विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि महाराज एवं तीर्थेशऋषि महाराज के प्रवचन का कार्यक्रम आयोजित किया गया। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रैक्टिकल लाइफ में सफलता के सूत्र बताते हुए कहा कि यदि कोई आपके साथ सकारात्मक न भी रहे तो आपको सकारात्मक अवश्य रहना चाहिए। यदि आप सकारात्मक रहोगे तो सामने वाले के भी सकारात्मक होने की संभावनाएं बनी रहती हैं कि वह कभी न कभी सकारात्मक हो सकता है। जिस प्रकार बीज कभी भी अनुकूलता मिलने पर अंकुरित होकर पेड़ बन सकता है इसी प्रकार हमारे कर्मों के बीज भी कब और कौन-से भव में उदय हो जाएं पता नहीं चलता।
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सफल और सम्मानित होना चाहता है। जिस जीव को कहीं भी जाकर सम्मान, सहयोग और उपकार करने वाले मिलते हैं वह उच्च गौत्र का माना गया है और जिसे हर जगह असहयोग और अपमान का सामना करना पड़ता है वह निम्न गौत्र का कहा गया है। उच्च और निम्न गौत्र का संबंध मनुष्य की गति से है, जिसे बदला भी जा सकता है। दूसरों की निन्दा और स्वयं की बढ़ाई करने वाला व्यक्ति कहीं भी सम्मान नहीं पा सकता और जो अपनी कमियों को देखता है और दूसरों की अच्छाईयों को ढंूढक़र उन्हें उजागर करता है वही व्यक्ति सभी जगह सम्मानित होता है, लोगों के मन में उसके प्रति ही अच्छी भावना रहती है और प्रत्येक जगह सम्बल पाकर सफलता को छूता है।
परमात्मा ने कहा है कि ऐसे व्यक्ति प्रतिकूलताओं में भी सदैव उच्च गति की ओर निरंतर आगे बढऩे वाले और उच्च गौत्र के होते हैं। नीच गौत्र वाला व्यक्ति आत्म प्रशंसक, दूसरों की गलतियां खोलने वाला और अनुकूलताओं में भी आगे नहीं बढ़ पानेवाला होता है। उच्च गौत्र वाले व्यक्ति में चार प्रकार की विशेषताएं होती हैं- किसी भी जीव को कष्ट देकर प्रसन्न नहीं होना, अपने सुख-दु:ख में समान भाव रखना, मन-वचन-क्रिया में समान रहनेवाला और दूसरों के सुख-दु:ख में शामिल होनेवाला जीव वासुदेव श्रीकृष्ण के समान होता है।
परमात्मा ने मनुष्य, देव, तिर्यंच और नारकी के अलावा पांचवीं गति सिद्ध बताई है। जो सभी को सफल बनाना चाहता है, सभी का कल्याण चाहता है और स्वयं लगातार प्रयास करता है कि मेरे साथ दूसरों को भी सफलता प्राप्त हो वही सिद्ध होता है।
अचारांग सूत्र में बताया गया है कि जीवन में परेशानियां और संताप होने का कारण लोभ है, यह हमारे अंतर में चलता ही रहता है जिसके कारण अनेक दु:खों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है। साधना मार्ग पर चलने वाले क्रोध अहं और माया को तो जीत लेते हैं, लेकिन लोभ को जीतना कठिन है, यदि इस पर विजय प्राप्त कर ली तो केवलज्ञान हो जाता है। लोभ न छूटने के कारण जीव संतप्त होता रहता है, वह अपने जीवन में संयोग जरूर चाहता है लेकिन नियम नहीं चाहता। उसे अर्थज्ञान ही रहता है, व्यक्ति ज्ञान को वह भूल जाता है। एक बार लोभ जीवन में शुरू हो गया उसके बाद उसे अन्य कुछ भी दिखता नहीं है। नारकी के जीव पृथ्वीकाय नहीं बनते लेकिन देवलोक के जीव अपनी लोभ सौम्या के कारण पृथ्वीकाय बनना पड़ता है।
धर्म क चार दरवाजों में से सबसे पहला है- त्याग। त्याग या दान करते हैं तो धीरे-धीरे लोभ कम होता जाएगा।
परमात्मा ने कहा है कि लोभी व्यक्ति का तन, मन, कर्म, लेश्या शस्त्र के समान बन जाते हैं। वह बार-बार और सपने में भी उसी बारे में चिंता करता रहता है। उसका आयुष्य, सुनने, देखने, चखने और मन एकाग्रचित होने की शक्ति क्षीण होती जाती है। उसकी इन्द्रियों पर लोभ का बोझ बढ़ता ही जाता है। लोभग्रस्त व्यक्ति बुरी चीजों को जानते हुए भी करता जाता है और धीरे-धीरे उसी में लिप्त हो कर मूढ़ता की ओर बढ़ता जाता है।
मेरा कुछ भी नहीं है, यह सभी सुख, संपत्ति और सुविधाएं यही रह जाएंगी इस प्रकार सोचते हुए लोभ का त्याग करें। अच्छा सुनें, अच्छा बोलें और अच्छे कर्म करेंगे तो आपका सभी जगह सम्मान और सहायता प्राप्त होगी। अंतिम समय आने से पहले अपने लोभ को जानें और उसका त्याग कर दें इसी में कल्याण है। अंतिम समय में धन, सत्ता और मकान का रिश्ता नहीं बल्कि प्रेम या वैर का रिश्ता चलेगा।
श्रेणिक चरित्र में बताया कि अभयकुमार को पिता श्रेणिक की चिंता का कारण मालूम होन पर वह उन्हें आश्वस्त करता है और रानी चेलना की भावना को पूरी करने के लिए उसके सामने अभयकुमार का कलेजा निकलवाकर उसे देने का अभिनय किया जाता है। चेलना को गर्भस्थ जीव की संतुष्टि होने के बाद अपनी गलती का आभास होता है और वह दु:खी होती है तभी श्रेणिक जीवित सामने आ जाता है। चेलना अपने गर्भ को नष्ट करने के लिए अपने प्रकार के प्रयास करती है लेकिन सफल नहीं हो पाती और राजकुमार कोनिक का जन्म होता है। कोनिक श्रेणिक से प्रेम नहीं करता लेकिन मां चेलना को बहुत चाहता है। श्रेणिक तो कोनिक को चाहता है लेकिन चेलना कोनिक से प्रेम नहीं करती।
तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि हमारे उपकारी परमात्मा के बताए मार्ग पर चलना हो तो हमें तीर्थंकरों का साक्षात्कार करना होगा। तीर्थंकर स्वयं तीर्थ बनकर हमें भी तीर्थ बनाते हैं। तीर्थंकरों के जीवन के नियम, तप, व्रत, मर्यादा को हम स्वीकार कर उनके जैसा बन सकते हैं। प्रतिक्रमण में बताए गए श्रावक के 12 व्रतों में से हम यदि एक की भी आराधना कर लें तो तीर्थ बन जाएं। जीव में नियम और संयम से हमारे अन्तर की ऊर्जा को एक दिशा मिल जाती है और वह तीव्र गति से उस ओर बढऩे लगती है। संसार के जितने भी महापुरुष हुए हैं सभी ने अपने जीवन में किसी न किसी व्रत और संकल्प का पालन किया है। अधिकांश लोग भविष्य की आशंका में नियम टूटने के डर से संकल्प लेते ही नहीं है, जो गलत है। अपने जीवन में किसी एक नियम का संकल्प कर उसका जरूर पालन करें।
उपाध्याय प्रवर के सानिध्य में 72 घंटे का अर्हम गर्भ संस्कार के टिचर ट्रेनिंग का शिविर शुरू किया गया है। 30 सितंबर को नवकार कलश अनुष्ठान और स्थापना का कार्यक्रम संपन्न होगा।