सुंदेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- दान का फल वस्तु पर नहीं, वृत्ति पर आधारित हैं । कुत्ता, गधा , गाय और जमीन मानव के पास से कम लेते हैं और ज्यादा देते है । धनवाले सभी लक्ष्मीपति नहीं होते हैं ।अधिकांश तो लक्ष्मीदास या लक्ष्मीनंदन ही होते हैं ।
पैसा आने पर अभिमान पैदा होता हैं और जाने पर व्यक्ति दीन बनता हैं ।जल देने वाले बादल का स्थान ऊपर हैं और संग्रह करने वाले सागर का स्थान नीचे हैं ।दानी का हाथ हमेशा ऊपर रहता है । दान देने के पुर्व उत्साह, दान देते समय आनन्द और दान देने के बाद अनुमोदना हो तो दान का फल अनेक गुणा बढ़ जाता हैं धान्य ( अनाज) को पचाना आसान हैं, धन को पचाना मुश्किल हैं ।
जो पास में होगा वह साथ में नहीं, किन्तु जो दिया होगा , वह साथ में आएगा । जो गरीबों की दुआ लेता हैं, उसे डॉक्टरों की दवाई लेनी नहीं पडती हैं। पैसा आने पर दो चीजे गायब हो जाती हैं- सच्ची नींद और सच्ची भूख । पैसा आने पर दो चीजें सामने से आती हैं -झूठी चिंताए और झूठे संबंध । मधू मक्खी, चींटी और कृपण को खुद की ही कमाई काम नहीं लगती हैं।
सुकृत को जितना छिपाओगे , वह शक्तिशाली बनेगा और दुष्कृत को जितना प्रगट करोगे , उतना वह कमजोर बनेगा। सुगन्ध रहित पुष्प बेकार हैं दान रहित लक्ष्मी बेकार हैं ।