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राग द्वेष से मुक्त होने पर मिलता समाधि मरण : जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

राग द्वेष से मुक्त होने पर मिलता समाधि मरण : जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

कर्म बंधन के प्रकारों को समझाते हुए मन को आरोग्य युक्त बनाने की दी प्रेरणा

त्रिदिवसीय तपोभिन्दन समारोह का हुआ प्रारम्भ

Sagevaani.com @Chennai; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में उत्तराध्यन सूत्र के पाँचवे अध्ययन के विवेचन में धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि जैसे सब्जी के अन्दर पड़ने वाले मसालों से तय होता है कि सब्जी कैसी बनी, ठीक उसी तरह हम धार्मिक, सामाजिक या अन्य क्रियाएं कृति यानि करते रहते है। तीर्थयात्रा या शादी समारोह में जाते है, वहां श्रृति यानि सुनते भी है और स्मृति याद भी करते है। प्रश्न यह है कि हम करते समय, सुनते, याद करते समय उसमें रस कैसा है? रस शब्द का अर्थ होता है- आसक्ति, रुचि, अंतर भाव आहो भाव। कृति, श्रृति, स्मृति में हमारा रस कैसा था? रस बड़ा महत्वपूर्ण है और उसी को रुचि कहा गया है। रुचि ही तय करती है कि आपकी कृति, श्रृति, स्मृति कैसी होगी।

◆ हर विपरीत क्रियाओं पर होते भिन्न-भिन्न कर्मों का बंधन

आचार्य प्रवर ने कहा कि तत्व ज्ञान के आधार पर कर्म बंधन के चार भेद है- प्रकृति बंध, स्थिति बंध, रस बंध और प्रदेश बंध। ज्ञान की आसातन से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होगा, उसी तरह हर विपरीत क्रियाओं में अलग अलग कर्मों का बंधन होता है, कर्म पुदगल हमारी आत्मा पर छिपक जाते है।

ज्ञान की आसातना मिथ्यात्व के साथ करने पर ज्ञानावरणीय के साथ मोहनीय कर्म का भी बंध होगा। ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव है ज्ञान को रोकना- यह प्रकृति बंध हुआ। वह कर्म कितने काल तक, समय तक रहेगा, वह है स्थिति बंध। सबसे खतरनाक कर्म मोहनीय कर्म है- जिसकी उत्कृष्ट स्थिति 70 करोड़ाकरोड़ सागरोपम (जैन गणित का कालमान) सामान्य भाषा में असंख्यात वर्ष तक आत्मा पर छिपका रह सकता है। लड्डू के आधार पर जैसे यह मैथी का, नुगती का या किसका लड्डू है- वह प्रकृति बंध। लड्डू कितने दिनों तक खाने के योग्य रहेगा- वह स्थिति बंध। उसका स्वाद कैसा है- वह रस बंध और उसका वजन कितना है- वह प्रदेश बंध। इन चारों में सबसे बड़ा खतरनाक है- रस बंध।

◆ हमें उत्तम आरोग्य, उत्तम बोधि और उत्तम समाधि मिले

गुरुवर ने कहा कि जो भी व्यक्ति धर्म को समझता है, आत्मा परमात्मा को मानता है, वितराग वाणी पर श्रद्धा करता है- वह चाहेगा कि मैं समाधि मरण को प्राप्त करू। हम लोगस्स पाठ में प्रार्थना भी यही करते हैं कि आरोग्ग बोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दिंतु। हमें उत्तम आरोग्य, उत्तम बोधि और उत्तम समाधि मिले। आरोग्य यानि मनोभाव मन का आरोग्य। वैसे तो रोग और मृत्यु का कोई भरोसा नहीं, कब आ जायें। हम मन का आरोग्य मांगते हैं।

मन स्वस्थ रहेगा तो हम प्रसन्न रहेंगे। असाता वेदनीय कर्म का उदय होगा तो शरीर अस्वस्थ होगा, लाख कोशिशों के बाद भी रोग को सहन करना पड़ेगा ही। वैसे देना वाले परमात्मा नहीं है, देने वाले हैं हमारे अर्धवव्साय। मैं ही देने वाला हूँ। तन की स्वस्थता मेरे हाथ में नहीं है, लेकिन मन की स्वस्थता मेरे हाथ में है। हर परिस्थितियों में मेरा मन प्रसन्न रहे। चेतना में मुझे बोधी चाहिए, देव, गुरु, धर्म के प्रति अखड़ श्रद्धा रहे। आत्मा में सत्य को सत्य कहने, मानने, समझने का यथार्थ भाव रहे। उत्तम समाधि के लिए मेरी रुचि सम्यग् हो। जैसी रुचि होगी, तदनुसार कृति, श्रृति, स्मृति होगी। मैं मोक्ष में जाना चाहता हूँ, वह मेरे हाथ में नहीं, लेकिन जहां मैं नहीं जाना चाहता हूँ, वहां पर रोक ला लूँ। मन्दिर तक, स्थानक तक माता पिता को छोड़ने जाते है फिर भी स्वयं अन्दर नहीं आते, कारण रुचि नहीं है। शरीर में मन जमा है, तब खाने का मन नहीं लगता। उसी तरह हमारे मन में राग द्वेष रुपी मल जमा होने के कारण धर्म में रुचि नहीं होती। शरीर की शुद्धि होने पर खाने में रुचि उत्पन्न होती है, उसी तरह हमारे आत्मा में भी राग द्वेष रुपी कम करें। उपयोग और आसक्ति। पाँच रूपये का पैन उपयोगी है और हजार रुपये का पैन आसक्ति है। हम आसक्ति को कम करें। समाधि मरण के लिए जरूरी है, रुचि का होना, उसके लिए हमें वैर विरोध को छोड़ना होगा। राग द्वेष को छोड़ना होगा। उसे छोड़ने पर ही हम समाधि मरण को प्राप्त कर सकते हैं।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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