चेन्नई. जो वस्तु जो व्यक्ति संभाल नहीं सकता वह उसे दे दिया जाए या गलत आदमी गलत जगह पर बैठ जाने से सभी उसके परिणाम भुगतते हैं। धृतराष्ट्र को अयोग्य होने पर भी सत्ता मिल गई तो कितने ही लोगों की जिंदगी खतरे में आ जाती है। इसे अच्छी तरह से समझें, सही व्यक्ति, वस्तु या शब्दों का सही जगह चुनाव करें। किसी से उसके प्रणाधार या आस्था कभी भी छीनें नहीं। जब प्राणाधार छिन जाता है तो वह आदमी रह नहीं पाता, समाप्त हो जाता है।
बुधवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रोक्टिकल लाइफ सत्र में कहा कि यदि आप गलत जगह या स्थान पर गलत बात अच्छी भावना से भी बोलेंगे तो परिणाम गलत ही आएंगे। जहां जो नहीं बोलना चाहिए वहां हम बोल जाते हैं, गलत जगह पर वस्तु रख देते हैं। उसके परिणाम गलत आते हैं, वहां अच्छी भावना भी काम आने वाली नहीं है। इस प्रकार अच्छी भावना से भी विराधना हो जाती है। इसलिए यथास्थान, यथाभाव से वस्तु रहनी चाहिए। वस्तुओं के उपयोग में आपको उसके परिणामों को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। जो आपने किया वही परिणाम आपको मिलेंगे। इसलिए परमात्मा ने चौथी सम्मिति यह दी है कि बिना दुर्भावना के, बिना कषाय के कैसे जीवन में पाप शुरू हो है। इसका पालन करने से याददाश्त बहुत तीव्र हो जाती है। इसे जितना समझेंगे उतना जीवन विराधना से मुक्त हो जाएगा।
जिस प्रकार द्रोणाचार्य को अश्वत्थामा के करने की सूचना से वह विचलित हो हथियार डाल देता है। किसी के प्राणों के आधार को छीन लेना विराधना का मार्ग है। परमात्मा ने दसों विराधनाओं के पांच कारण बताए। कोई व्यक्ति कमजोरी, शक्ति, संगत, मानसिकता और कर्म के कारण विराधना करता है, श्रेष्ठतम बनने के लिए इन्हें दूर करना चाहिए।
आचारांग सूत्र में बताया कि कैसे अन्दर के लोभ को जीतना चाहिए। जब तक अन्दर लोभ का दानव मरता नहीं है, तब तक साधक बनने की बात तो दूर, व्यक्ति मानव बन ही नहीं पाता है। यदि कोई साधक लोभ को छोडक़र चलता है लेकिन अगर कुछ मिल जाए तो उसे ग्रहण कर लेता है, उसके लिए परमात्मा कहते हैं कि वह आज्ञा के बाहर हो गया और आत्मा की प्रतिलेखना करने के बजाय विषयों की प्रतिलेखना करने लगा गया है। जिसके पास प्रोपर्टी है तो वह जैन संत नहीं हो सकता और जिसके पास प्रोपर्टी नहीं तो वह महन्त नहीं। संत का बाना हो और चरित्र महंत का हो जाए तो खतरनाक है, वह व्यक्ति स्वयं के साथ न जाने कितनों को ही डूबो देता है। संत का प्रोपर्टी पर अधिकार आ जाए तो वह महंत हो ही जाता है।
आचारांग सूत्र कहता है कि जिसने प्रोपर्टी के पीछे गुरु बदल दिया तो वह और किसी के पीछे क्या-क्या बदल सकता है। गलत रास्ते पर भी बेईमान बनकर चलना बहुत ज्यादा खतरनाक है।
दीक्षार्थी के लिए संयम उस समय दु:ख की शय्या बन जाती है जब यह लगे कि दीक्षा लेकर गलती की। जो अपना लक्ष्य ध्यान में रखकर निर्णय लेते हैं वे ही सफल होते हैं, अवसर देखकर निर्णय लेने वाले को मौके कब धोखा दे दे पता नहीं। जैसी प्रतिज्ञा आपने की है, वैसा ही निर्णय लिया करें। प्रतिज्ञा भग से जन्म-जन्म में दुर्गति होगी, उस समय कोई भी बचाने वाला नहीं आएगा। जो एक बार आज्ञा से बाहर गया वह प्रोपर्टी की प्रतिलेखना करता है।
आचारांग में कहा है कि काम प्राप्त होने के बाद भी उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। जो ऐसा करता है वो ना इस किनारे पर है ना उस किनारे पर। हजारों प्रलोभन आते हैं लेकिन उस समय से अपने गुरु और भगवान के साक्षी से जो प्रतिज्ञा ली है उसे याद रखें और उससे ईमानदार रहें। कम से कम दूसरों की आस्था तो न टूटे। ऐसे लोग पूरे धर्म को कलंकित करते हैं। जो व्रत लिया है उसके प्रति ईमानदार रहें, बेईमानी न करें। वह स्वयं को डूबेगा ही लेकिन साथ ही दूसरों को भी डूबोता है।
श्रेणिक चरित्र में बताया कि देवता का दिया हार टूटने पर कोई ठीक करने के लिए तैयार नहीं होता है। सभी को पता चलता है कि जो ऐसा करेगा उसका आयुष्य छह माह में पूरा हो जाएगा। श्रेणिक द्वारा एक लाख स्वर्ण मुद्राओं की घोषणा सुनकर एक गरीब सुनार इसके लिए तैयार होता है और हार को ठीक करता है। उसका आयुष्य पूरा हो जाता है। उसका बेटा पुरस्कार लेने राजा के पास जाते हैं और श्रेणिक उन्हें मना कर देता है। कहता है कि जिसने यह कार्य किया उसे ही पुरस्कार मिलेगा। सुनार का जीव देवता बनता है और उसे ज्ञात होता है राजा ने पुरस्कार नहीं दिया। वह बंदर का रूप धरकर रानी का हार उठा लेता है। राजा घोषणा करता है कि जिसके पास हार मिलेगा उसे दंड देगा। सुनार का बेटा ध्यानमग्न बैठे संत धर्मघोषमुनिजी के गले में डालकर भाग गया। वहां अभयकुमार पोषध कर रहा था। उसने हार देखा और लेकर महल में चला गया। पूछने पर वह बोला कि जिसने दिया उसी ने दिया। उसने झूठ भी नहीं बोला और सच भी नहीं बताया और मुनियों को दण्ड से बचा लिया।
तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि जो व्यक्ति सत्संगत नहीं करता है, संतों और सज्जनों की संगत नहीं करता उसके जीव में पान पाप तो आा ही आना है, कुछ जीवों को सब कुछ मिलने के बाद भी समझ नहीं आती है। अपने जीवन कल्याण की भावना नहीं होती और पाप उपार्जन करता रहता है। मर्यादा में रहते हुए भी संसार को नहीं छोड़ पाते। अन्य क्षेत्र में किय ाहुआ पाप छूट जाता है लेकिन धर्मक्षेत्र में किया हआ पाप वज्रलेप जैसा बन जाता है इसलिए जो पुण्यकर्मों से मिला है उसे और बढ़ाते जाएं, धर्म को बढ़ाने की भावना की तरह धर्म को भी बढ़ाने के नित नए रास्तों की खोज करनी ही चाहिए।
धर्म में भी नूतनता होनी चाहिए, धर्म को तरह-तरह से बढ़ाना चाहिए। हम भौतिक वस्तुओं के गुलाम बनते जा रहे हैं, हमारी ऊर्जा इन सबमें व्यर्थ हो रही है, ये जीवन में पाप आने के रास्ते हैं। इसे पहचानें और जहां तक हो सके इनसे बचेंगे तो आप शीघ्रता से अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे।
8 से 10 अक्टूबर को 72 घंटे का कर्मा शिविर, 16 अक्टूबर को आयंबिल ओली की शुरुआत और सुमतिप्रकाशजी महाराज के जन्मदिवस पर पूरे भारतवर्ष में 8,000 आयंबिल करने का लक्ष्य है। 19 अक्टूबर से प्रात: 8 से 10 बजे तक उत्तराध्ययन सूत्र का कार्यक्रम रहेगा।