आचार्यश्री ने स्वाध्याय और साधना के द्वारा मोह को कम करने की दी पावन प्रेरणा
कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): दक्कन के पठारी भाग में स्थित कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, महातपस्वी, परम साधक आचार्यश्री महाश्रमणजी की अमृतवाणी की मंगल धारा नियमित प्रवाहित हो रही है, जो जन-जन के मानस को अभिसिंचन प्रदान ही नहीं कर रही, बल्कि उनके मानसिक मैल को भी धोकर उनके मन को निर्मल बना रही है। मानवता के लिए समर्पित ऐसे महामानव की अमृतवाणी की धारा संपूर्ण मानवता को तरंगित कर रही है। तभी तो पंथ, संप्रदाय, रंग-रूप आदि का भेद मिटाकर लोग नियमित रूप से आचार्यश्री महाश्रमणजी के चतुर्मास प्रवास स्थल में बने ‘महाश्रमण समवसरण’ में पहुंच रहे हैं और अपने जीवन का कल्याण कर रहे हैं।
गुरुवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को महामानव महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी की अमृतवाणी से मोह को कम करने अथवा उसे क्षीण करने की पावन प्रेरणा प्राप्त हुई। नित्य की भांति समुपस्थित हजारों श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने ‘सम्बोधि’ ग्रन्थाधारित अपने पावन प्रवचन में मंगल पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि मुनि मेघ ने भगवान महावीर से प्रश्न किया-प्रभो! मोह क्या चीज है, मोह का मूल क्या है और मोह का फल क्या है?
भगवान महावीर ने मुनि मेघ को मंगल संबोध प्रदान करते हुए कहा कि प्राणी की चेतना के साथ एक ऐसा तत्त्व घुला-मिला रहता है जो विजातीय होता है। वह विजातीय होने के कारण मनुष्य ही नहीं, प्राणी की चेतना को विकृत बना देता है। चेतना में विकार, विकृति और खराबी लाने वाला यह मोह नाम का तत्त्व होता है। चेतना के साथ घुला-मिला वह विजातीय तत्त्व जो चेतना में विकृति पैदा करने वाला होता है, वह मोह होता है। आठ कर्मों में एक है मोहनीय कर्म। इन आठ कर्मों में सबसे निकृष्ट कर्म अथवा जिसे कर्मों का राजा, सम्राट भी कहा जा सकता है, वह मोहनीय कर्म है। अध्यात्म की साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य होता है, इस मोहनीय कर्म को क्षीण करना अथवा मोहनीय कर्म को क्षीण करने की साधना करना।
मोह के कारण ही आदमी अपराध में चला जाता है। आदमी से हिंसा, हत्या जैसे पाप कराने वाला तत्त्व मोह होता है। मोह का मतलब केवल ममत्व ही नहीं, मोह का बड़ा परिवार है। उसमें गुस्सा, अहंकार, लोभ, राग-द्वेष आदि बुरे तत्त्व होते हैं। चेतना की विकृति का सबसे बड़ा कारण यह मोह होता है। समाज में भी देखा जाए तो अपराध के मूल में मोह तत्त्व की उपस्थिति होती है। राग-द्वेष, गुस्सा, अहंकार आदि आदमी को अपराध की ओर धकेलते हैं।
कई बार आदमी न चाहते हुए भी अपराध की ओर चला जाता है। मोह का मूल कारण अज्ञान होता है। आदमी को यदि सम्यक् ज्ञान हो जाए तो आदमी मोह को कम भी कर सकता है, किन्तु अज्ञानी आदमी भला मोह को कैसे कम कर सकता है। सम्यक् ज्ञान हो जाए, अज्ञान समाप्त हो जाए तो मोह को भी कम किया जा सकता है। आदमी को मोह को कम करने का प्रयास करना चाहिए। साधना व स्वाध्याय के द्वारा मोह को कम किया जा सकता है।
मंगल प्रवचन के पश्चात् आचार्यश्री ने स्व. श्री सूरजमल गोठी के शोक संतप्त परिवार को प्रेरणा प्रदान की। साध्वीप्रमुखाजी ने भी स्व. गोठीजी के विषय में फरमाया। श्री सुमतिचंद गोठी, सुश्री रंजना गोठी, श्री कनकमल दुगड़ व श्री राजीव गदैया ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी। अनेक लोगों ने अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया।