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मोह के दो प्रकार, दर्शन मोह और चारित्र मोह:  आचार्यश्री महाश्रमणजी

मोह के दो प्रकार, दर्शन मोह और चारित्र मोह:  आचार्यश्री महाश्रमणजी

कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): आचार्यश्री तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र में चतुर्मासकाल के प्रवासित जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी के श्रीमुख से प्रवाहित होने वाली ज्ञानगंगा की अवरिलता बेंगलुरुवासियों के मानस को आध्यात्मिक भावों से आप्लावित कर रही है।

आचार्य महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी वर्ष प्रारम्भ है। इस कारण बेंगलुरुवासियों का यह सौभाग्य है कि आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा संस्कृत भाषा में रचित ग्रन्थ ‘सम्बोधि’ के आधार पर आचार्यश्री के श्रीमुख से निरंतर सम्बोध प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। इस व्याख्यान के माध्यम से श्रद्धालुओं को जीवनोपयोगी ऐसी प्रेरणाएं प्राप्त हो रही हैं, जिनका अंश मात्र अनुकरण भी उनके जीवन को नई दिशा प्रदान कर सकता है। 

पावन ‘सम्बोधि’ की व्याख्यानमाला के अंतर्गत शुक्रवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि मोह के दो प्रकार होते हैं-दर्शन मोह और चारित्र मोह। दर्शन मोह में मूढ़ व्यक्ति का दृष्टिकोण अयथार्थ होता है, वह मिथ्यात्वी होता है। चारित्र मोह में मूढ़ व्यक्ति राग-द्वेष करता रहता है।

‘सम्बोधि’ में चारित्र मोह के संदर्भ में बताया गया है कि प्राणी के मन में राग और द्वेष दोनों भावनाएं उभरती रहती हैं। यदि व्यक्ति के मनोज्ञ और अनुकूल परिस्थिति होती है तो उसके भीतर राग के भाव और अमनोज्ञ या प्रतिकूल परिस्थिति में उसके भीतर द्वेष के भाव उभरने लगते हैं। यह राग-द्वेष का भाव आने का अर्थ होता है कि आदमी पर चारित्र मोह का प्रभाव है, इसलिए वह राग-द्वेष में जा रहा है।

जैसे किसी आदमी की कोई प्रशंसा कर दे, उसकी बड़ाई कर दे तो आदमी राग भाव में चला जाता है और कोई उसकी बुराई कर दे, उसे बुरा-भला कह दे तो आदमी के भीतर उसके प्रति द्वेष के भाव आ जाते हैं। कोई मनोज्ञ, अच्छा और आकर्षक दृश्य दिखाई दे तो आदमी आमोद-प्रमोद में और प्रतिकूल अथवा अमनोज्ञ दृश्य दिखे तो आदमी गुस्से में अथवा द्वेष की भावना से भावित हो सकता है। कहीं अच्छी सुंगध के कारण आदमी उसके प्रति राग भाव रख सकता है तो कहीं दुर्गंध के कारण द्वेष के भाव उभर सकते हैं। 

उसी प्रकार कहीं मनोज्ञ भोजन मिल जाने तो आदमी प्रशंसा करने लगता है और भोजन को राग भाव से ग्रहण करता है और अमनोज्ञ भोजन मिलने पर उसकी निंदा करने लगता है और द्वेष भाव में भी जा सकता है। भोजन के संदर्भ में तो आदमी को तटस्थ रहने का प्रयास करना चाहिए। मनोज्ञ भोजन मिलने पर ज्यादा प्रशंसा नहीं और अमनोज्ञ मिलने द्वेष की भावना नहीं आनी चाहिए।

आदमी को इस बात की साधना करने का प्रयास करना चाहिए कि अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में समता भाव रखने का प्रयास करना चाहिए। अनुकूलता में ज्यादा खुशी नहीं और प्रतिकूलता में ज्यादा दुःखी नहीं होना चाहिए। आदमी को दोनों परिस्थितियों में समता भाव रखने का प्रयास करना चाहिए।

आदमी अपने जीवन की एक-एक प्रवृत्ति पर ध्यान दे और समता की साधना का प्रयास करे तो वह राग-द्वेष के भावों से मुक्त होकर अपनी समता को बढ़ा भी सकता है। राग-द्वेष को कर्मों का बीज कहा गया है। राग-द्वेष है तो कर्म का बंध होता रहता है।

इसलिए आदमी को अपने जीवन में राग-द्वेष को त्यागने और समता भाव का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने ‘सम्बोधि’ के मंगल व्याख्यान के उपरान्त ‘महात्मा महाप्रज्ञ’ पुस्तक से भी श्रद्धालुओं को कुछ पावन प्रेरणा प्रदान की। 

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