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ज्ञान वाणी

मोहनीय कर्म को क्षीण कर आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढ़ें: आचार्य महाश्रमण

मोहनीय कर्म को क्षीण कर आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढ़ें: आचार्य महाश्रमण

विल्लुपुरम. जिले के आसारंगकुप्पम के निर्मल विद्या मैट्रिकुलेशन स्कूल में उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए आचार्य महाश्रमण ने कहा दुनिया में कभी-कभी युद्ध की बात भी सामने आती है। एक देश का दूसरे देश से, एक राजा का दूसरे राजा से युद्ध हो सकता है। युद्ध की अपनी वीभिषिका भी होती है, विध्वंस, संहार होते हैं।

युद्ध में सैनिकों की वीरता और शौर्यता दिखाई देती है, जिसके कारण वे मानो युद्ध को तत्पर हो जाते हैं। एक आदमी दूसरे आदमी को मार दे, यह बाह्य युद्ध है। शास्त्रकार ने बताया है कि आदमी को स्वयं के भीतर स्वयं से स्वयं के साथ युद्ध करने का प्रयास करना चाहिए और स्वयं को पराजित करने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने आप से युद्ध का अर्थ होता है, कषायों से युद्ध, मोहनीय कर्मों से युद्ध। इसमें कभी कर्म विजेता बनता है तो कभी आदमी विजेता बन सकता है।

आदमी को मोहनीय कर्म रूपी रावण का संहार करने के लिए आध्यात्मिक पुरुषार्थ रूपी राम की आवश्यकता होती है। आदमी आध्यात्मिक पुरुषार्थ की प्राप्ति की दिशा में आगे कदम बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। मोहनीय कर्म रूपी रावण समाप्त हो, ऐसा प्रयास करना चाहिए। गुस्से को क्षमा द्वारा, लोभ को संतोष के द्वारा, अहंकार को नम्रता से हराया जा सकता है।

कहीं ऋजुता तो कभी माया हावी हो सकती है। आदमी को माया, गुस्सा, लोभ व अहंकार को असफल बनाने का प्रयास करना चाहिए। आदमी जब आंतरिक युद्ध में विजेता बनता है तो बुद्ध बन सकता है। भीतर से युद्ध करने के लिए आदमी के भीतर शौर्य की भी आवश्यकता होती है।

इस प्रकार आदमी को अपने मोहनीय कर्मों को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए। आध्यात्मिक पुरुषार्थ रूपी राम के आक्रमण से मोहनीय कर्म रूपी रावण को समाप्त किया जा सकता है। आदमी को इस दिशा में आगे बढऩे का प्रयास करना चाहिए।

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