यहां शांति भवन में विराजित ज्ञानमुनि ने कहा हमारे मन में हमेशा उठने वाली इच्छाओं और अनिच्छाओं व वृत्तियों में हम विवेक शून्य होकर शिखर की ओर बढऩे की मंजिल को पाने की बात तो दुर कभी उस मार्ग पर जाने के बारे में सोचा भी नहीं।
कभी अपने आत्मा को समझने का प्रयास नहीं किया। जिसके हृदय में प्रेम, वात्सल्य है व आत्मा को जानने की उत्सुकता है एवं जिसके जीवन में सदाचार व सदगुणों भरे हैं वही स्वयं को विकास के शिखर पर पहुंचा सकता है। मन ही हमारे पतन व उत्थान की कुंजी है।
मन से ही स्वर्ग व नरक मिल सकता है। मानव के संयम में पुरुषार्थ नहीं करने के मुख्य कारण हैं, धनलिप्सा, सत्ता की महत्वकांक्षा, विलासिता, अविश्वास व सुसंस्कारों का अभाव। संयम का फल होता है जबकि मोक्ष से अनंत सुख मिलता है।
संयम के प्रभाव से अपवित्र व्यक्ति भी पवित्र हो जाता है एवं सेवक भी स्वामी व पतित भी पावन बन जाता है।