किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी ने प्रवचन में कहा कि परमात्मा ने मानव भव को अति दुर्लभ बताया। योग के बिना हितकारी साधना करना असम्भव है। मोक्ष से जोड़ने वाला सबसे प्रमुख योग आज्ञायोग है। हमने धर्म के नाम पर खूब साधना की परंतु आज्ञा के अनुसार साधना नहीं की, इसलिए हमारा भ्रमण चल रहा है। हम सरल अभिग्रह से भी डर जाते हैं। पचक्खाण बंधन योग नहीं है। यह आपका सुरक्षा कवच है।
उन्होंने कहा कि हमारे यहां कहा गया है कि दूसरों की भूतकाल की भूल को भूल जाओ, केवल खमाओ नहीं। यदि ऐसा हो तो ही योग साधना हो सकती है। हमें भूतकाल की हुई घटना को मन से भूल जाना है। इन्द्र महाराज ने परमात्मा का अभिषेक करते समय बेल का रूप धारण किया क्योंकि वे उपदेश देना चाहते थे कि हमें उपकारी परमात्मा के सामने बुद्धिहीन बनकर आराधना करनी है। भक्ति योग में जो बुद्धि लगाता है, उसकी बुद्धि का हिसाब किताब उभरने लग जाता है। ज्यादा बुद्धि भी दुःख का कारण है। अधिक बुद्धि का उपयोग करने से राग- द्वेष उत्पन्न होते हैं। पात्रता के विकास के अनुसार प्रधानता होनी चाहिए।
सीमंधर स्वामी की भाव यात्रा का वर्णन करते हुए उन्होंने बताया कि हमें मनोयोग से परमात्मा की वीतराग दशा तक पहुंचना है। ऐसी निर्मोही दशा का अवलोकन करना है, जिसमें राग, द्वेष, अहंकार नाम की चीज नहीं हो। ज्ञान प्राप्त होना सरल है, परंतु अहंकार के बिना ज्ञान मिलना महत्वपूर्ण है। प्रभु भक्ति करनी सरल है, परंतु दंभ के बिना की भक्ति महत्वपूर्ण है। सेवा करना सरल है परंतु निस्वार्थ भाव से सफल सेवा करना महत्वपूर्ण है। सुकृत को जितना गुप्त रखेंगे, उतना ही उत्तम फल मिलेगा। जहां पर बुद्धि नहीं लगानी है, वहां नहीं लगानी चाहिए। शत्रुंजय तीर्थ शाश्वत है। अष्टापद तीर्थ पांचवें आरे के अंत तक विद्यमान रहेगा। शत्रुंजय में सिद्धवड क्षेत्र में परमात्मा का शिखर व ध्वजा की परछाई दिखती है।
उन्होंने कहा कि जब साधु का मन विचलित हो जाए, संसार का आकर्षण पैदा हो जाए तो दश वैकालिक सूत्र के अंत में दो सूत्र तूलिका के रूप में दिए गए हैं, उनका ध्यान से स्वाध्याय करना चाहिए। यह भावपूर्वक मंत्र का उच्चारण करने के लिए सीमंधर स्वामी ने बताया है। सीमंधर स्वामी के समवशरण के दर्शन करने हैं, जहां देव दुंदुभी के संगीत सुनाई देते हैं। हम योगसाधना और मनोलब्धि से समवशरण की भाव यात्रा कर सकते हैं। हमें प्रार्थना करनी है हे प्रभु, हमें भी उस भूमि में लेकर जाओ, जहां क्रूर प्राणी भी क्षमा- मैत्री का भाव रखते हैं। जो दोष जीवन में ज्यादा परेशान करता है उसके विपरीत गुण सीमंधर स्वामी से देने की विनती करना है। भाव- यात्रा करते समय समवशरण के दर्शन की भावना, हमारी प्रार्थना अवश्य फलित होती है। हम योगसाधना व मनोयोग से समवशरण व परमात्मा की छवि के दर्शन करने की क्षमता रखते हैं। परमात्मा का विस्मरण न हो, मन में भाव करने से वह हमें अवश्य मिलता है। समवशरण पहुंचने पर दीक्षा लेने का भाव रखनी चाहिए। उसके लिए प्रभु से मांग कर लो, प्रार्थना करो। भगवान के यहां देर है अंधेर नहीं। उत्तम भाव से अट्ठम तप और सीमंधर स्वामी का एक लाख जाप करने पर महाविदेह क्षेत्र में अगला भव मिलता है। प्रवचन के दौरान श्राविका उपाश्रय के खनन मुहूर्त का लाभ लेने पर संघवी वणीबाई सोहनराज साकरिया परिवार का बहुमान हुआ।