तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता शांतिदूत अहिंसा यात्रा के प्रणेता-महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी में अपने मंगल पाथेय में फरमाया कि कर्मों का विपाक होता है उसके अनुसार ही जीव प्रवृत्ति करता है। कर्मों के उदय होने के निमित्त और योग बनने से कर्मों का बंधन फिर विपाक और उसी के अनुसार जीव प्रवृत्ति करता है।
संवर के द्वारा नए कर्मों का बंध नहीं होता है तो विपाक भी रुक जाता है। नैष्कर्म्य के बिना विपाक का बंध नहीं होता है। पूर्ण नैष्कर्म्य योग को शैलेस्य अवस्था कहा जाता है और यह 14 गुणस्थान अयोगी केवली में प्राप्त होती है और इसके प्राप्त होने के तुरंत बाद जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
शुभ प्रवृत्ति के लिए अशुभ से निवृत्ति जरूरी है। सत्प्रवृत्ति से पापों का क्षय होता है और शुभ कर्म का बंद होता है। शुभकर्म का उदय होने पर शुभ नाम, शुभ योग, शुभ आयुष्य और शुभ वेदनीय का उदय होता है। आत्मा को मोक्ष पाने के लिए सभी कर्म चाहे वह शुभ हो चाहे अशुभ हो सभी से निवृत होना जरूरी है क्योंकि सिद्ध बनने वाली आत्मा को सभी कर्मों से मुक्त होना होता है।
जब सभी कर्म क्षीण हो जाते हैं तो आत्मा मोक्ष की प्राप्ति करती है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए निर्जरा जरूरी है तो संवर भी उतना ही जरूरी है क्योंकि निर्जरा पुराने कर्मों को क्षय करती है और संवर नए कर्मों के बंध को रोकता है। आचार्य प्रवर ने संस्कार निर्माण शिविर में संभागी बालक बालिकाओं को नौ तत्वों के बारे में जानकारी दी और उन्हें जीवन में कर्मों के प्रति सजग बनने की प्रेरणा दी।
आचार्यवर ने सरस अंदाज में पद्य के माध्यम से नौ तत्व सिखाएं। प्रवचन के दौरान आर्युमल्लिगे पार्थसारथी ने गुरुदेव के समक्ष उपस्थित होकर अपनी भावाभिव्यक्ति दी एवं आशीर्वाद ग्रहण किया। प्रवचन में 12 वर्षीय बालक हिमांशु डागा ने 8 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार जी ने किया।