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ज्ञान वाणी

मैत्री भाव से चित्त को करें भावित: आचार्यश्री महाश्रमण 

मैत्री भाव से चित्त को करें भावित: आचार्यश्री महाश्रमण 

तन्नीरपल्ली, करूर (तमिलनाडु): सोलह अनुप्रेक्षाएं अथवा भावनाएं बताई गई हैं, उनमें तेरहवीं अनुप्रेक्षा है-मैत्री। आदमी के मन में सभी प्राणियों के प्रति मैत्री का भाव हो। मैत्री हिंसा का एक विरोधी तत्त्व है। मैत्री है तो हिंसा नहीं, और हिंसा का भाव है तो वहां फिर मैत्री नहीं होती। मैत्री में हिंसा का भाव तो हो ही नहीं, साथ ही हित करने का भी प्रयास हो।

दूसरों का हित चिंतन मैत्री भाव होता है। जिस आदमी का चित्त मैत्री की भावना से भावित हो जाता है, वह आदमी हिंसा से उपरत हो जाता है।

मैत्री बहुत विराट तत्त्व है, इसे प्रेम भी कहा जाता है। आदमी की चेतना में मैत्री की भावना पुष्ट हो ऐसा प्रयास करना चाहिए। उक्त पावन पाथेय जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, शांतिदूत, अहिंसा यात्रा के प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने सिद्धार्थ पब्लिक स्कूल परिसर में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रदान की। 

इसके पूर्व मंगलवार को प्रातः की मंगलबेला में पेट्टावेथलाई स्थित रत्ना हायर सेकेण्ड्री स्कूल के परिसर से आचार्यश्री ने मंगल प्रस्थान किया। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-67 पर विहार कर रहे आचार्यश्री के पीछे की ओर से सूर्य भी आकाश में गतिमान हो चुका था, मानों वह भी महातपस्वी को गतिमान देख आकाश मार्ग पर गति कर रहा हो।

सुबह के मौसम में हल्की ठंड व्याप्त थी। आज भी आचार्यश्री के पावन चरण कावेरी नदी के तीरे-तीरे ही गंतव्य की ओर अग्रसर थे। मार्ग के दोनों ओर नारियल के ऊंचे-ऊंचे पंक्तिबद्ध वृक्षों की शृंखला दिखाई दे रही थी तो उन्हीं ऊंचे वृक्षों के नीचे केले के पेड़ पंक्तिबद्ध तरीके से लगाए गए थे। यह किसानों के दिमाग की उपज थी जो उन्होंने नारियल के वृक्षों के नीचे केले के पेड़ उगा रखे थे। इन वृक्षों की कतार मार्ग को प्राकृतिक सुन्दरता प्रदान कर रही थी।

ये वृक्ष आचार्यश्री की दृष्टि का भी विषय बने। आचार्यश्री ने विहार के दौरान तिरुचिरापल्ली (त्रिची) जिले की सीमा को अतिक्रांत कर करूर जिले की सीमा में पावन प्रवेश किया। लगभग साढ़े सात किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री तन्नीरपल्ली स्थित सिद्धार्थ पब्लिक स्कूल के प्रांगण में पधारे। विद्यालय प्रबन्धन से जुड़े लोगों ने आचार्यश्री का भावभरा अभिनन्दन किया। 

विद्यालय परिसर में आयोजित मंगल प्रवचन में आचार्यश्री मैत्री भाव को पुष्ट बनाए रखने की पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि अर्थ का दान देने वाले से भी बड़ा सम्मान, मैत्री भाव देने वाला का होता है। आदमी को किसी को मैत्री का दान दे, किसी को चित्त समाधि देने का प्रयास करें। मैत्री के भाव पुष्ट होंगे तो आदमी गुस्से आदि में भी नहीं जा सकेगा।

यदि सामने से प्रतिकूल व्यवहार भी मिल रहा हो तो आदमी को अहिंसा, मैत्री और उदारतापूर्ण व्यवहार का प्रयोग हो तो सामने वाले के व्यवहार पर भी प्रभाव पड़ सकता है। आदमी अपने चित्त को मैत्री की भावना से भावित करने का प्रयास करे, यह काम्य है। 

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