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मृत्यु कौनसे भावों में आ सकती है, वह हमारे हाथ में है: आचार्य उदयप्रभ सूरी

मृत्यु कौनसे भावों में आ सकती है, वह हमारे हाथ में है: आचार्य उदयप्रभ सूरी

Sagevaani.com @चेन्नई किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने प्रवचन में मन का दमन करने के लिए इन्द्रियों का दमन और इंद्रियों का दमन करने के लिए विषयों का दमन करने का मार्ग बताया। हमारे हाथ में मन, इंद्रियों, विषय और आत्मा में से क्या है? इन चारों में बाह्य वस्तु केवल एक है, वह विषय है।

हर कोई आत्मनियंत्रण करना चाहता है, परमात्म तत्व को पाना चाहता है। संसार का परम सत्य मृत्यु है और परमात्म तत्व पाने का परम सत्य मोक्ष है। महोपाध्यायश्री ने कहा वज्र के घर में भी घुस जा या यमराज के सामने गिड़गिड़ा भी ले, परंतु मृत्यु तो अवश्यंभावी है। यदि संसार छोड़ना है तो मृत्यु के साथ कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं जैसे कहां मरना है, कैसे मरना है, कौनसे भावों में मरना है या कब मरना है? हर किसी को ये प्रश्न पूछने पर जवाब मिलेगा मुझे गुरु की गोद में मरना है, बीमारी के बिना, हंसते हंसते मरना है, शुभ भावों में मरना है आदि।

आचार्यश्री ने कहा मृत्यु कभी भी आ सकती है। मृत्यु कौनसे भावों में आ सकती है, वह हमारे हाथ में है। इसके लिए पूरे दिन में तीन बार चार शरणागति स्वीकार करें। यानी मैं गुरु की शरण स्वीकार करता हूं, यह शुभ भाव से करना है। हमें सुकृतों की अनुमोदना और दुष्कृत्यों का त्याग करना है। उन्होंने कहा भाव बनाने के लिए संस्कार बनाने पड़ते हैं। पाप निकाचित तब बनता है जब हम उसका पश्चाताप नहीं करेंगे। ज्ञानी कहते हैं बंध एक बार होता है, अनुबंध बार-बार होता है। जिस पाप को आनंदमयी करते हैं, उसका प्रायश्चित भी पूरे भाव से अवश्य लेना चाहिए।

उत्तम सुकृत की अनुमोदना हृदय में उल्लास, प्रसन्नता खड़ी करता है। संपत्ति भरपूर है तो दान करना मध्यम है। संपत्ति मध्यम है तो भी दान करना उत्तम होता है। पाप करते वक्त या बाद में भी आनंद न माने, उस पाप की अनुमोदना करने से अशुभ अनुबंध शुरु होगा। पाप का पश्चाताप खड़ा करने से उसकी तीव्रता कम हो जाती है। पाप के प्रायश्चित की उपेक्षा और पाप की अनुमोदना मत करो।

इससे पूर्व मुनिश्री कृपार्यप्रभ विजयजी ने मन को नियंत्रण करने की पांच भावना बताई। वे है ज्ञान भावना, दर्शन भावना, चारित्र भावना, तप भावना तथा वैराग्य भावना। उन्होंने कहा खराब वस्तु को अभ्यास कर, सही रास्ते पर लाना ही भावना है।

ज्ञान से भावित आत्मा के लिए ज्ञान भावना लाभदायक होती है। दर्शन भावना मरुदेवी माता की तरह होनी चाहिए। उन्होंने कहा आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए ये छः गुण होने चाहिए, देवपूजा, दया, दान, दाक्षिण्य, दमन और दक्षता। दाक्षिण्य यानी सज्जनों की बात पर सम्मान रखना। धर्माराधना व‌ शुभ कामों को प्रेरित करने के लिए दाक्षिण्य बहुत महत्वपूर्ण है।

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