माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में विराजित आचार्य महाश्रमण ने बुधवार को कहा की चेतना मूर्छित बन जाती है जिससे आदमी कुपथ की ओर भी आगे बढ़ सकता है।
आचार्य ने ‘ठाणं’ आगमाधारित प्रवचन में कहा द्वेष प्रत्यया मूर्छा के दो भेद बताए गए हैं-गुस्सा और अहंकार। द्वेष के कारण आदमी गुस्सा ही नहीं अहंकार भी कर लेता है। गुस्सा और अहंकार करने से आदमी की चेतना मूर्छित हो जाती है।
अहंकार में आया व्यक्ति किसी अन्य का ध्यान नहीं रखता। वह अहंकार में स्वयं का भला भी नहीं सोच पाता। जब आदमी के अहंकार को कोई ठेस लगती है तो आदमी गुस्से में आ जाता है। इस प्रकार गुस्से और अहंकार का जोड़ा है।
अहंकार करने वाला गुस्से में जा सकता है और गुस्सा करने वाला अपना ही नुकसान कर सकता है। नमस्कार गुस्से का अंत करने वाला है। नमस्कार महामंत्र में ‘णमो’ के द्वारा मानो बार-बार अहंकार पर चोट पहुंचाई जाती है।
प्रेक्षाध्यान में भी इस महामंत्र को आधार बनाकर ध्यान किया जाता है। गुस्से के कारण आदमी किसी का भी नुक्कसान करने को तत्पर हो जाता है।
आदमी को सोचना चाहिए कि वह भला अहंकार और गुस्सा क्यों करे। न जाने चींटी के रूप में आदमी कितनी बार कुचला गया होगा, इसलिए अहंकार कतई न करें। आदमी स्वयं भी अहंकार से बचने का प्रयास करे।
आदमी पैसे और अपने पद, प्रतिष्ठा और धन तथा ज्ञान का अहंकार करने से बचने का प्रयास करना चाहिए। यदि आपके पास ज्ञान हो तो उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करना करें न कि उसका घमंड करें। अहंकार करने से आदमी को गुस्सा भी आ जाता है इसलिए गुस्सा करने से बचने का प्रयास करें।
हमेशा गुस्से और अहंकार से दूर रहका जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करें। इस मौके पर आचार्य ने ‘मुनि मुनिपत के व्याख्यान’ क्रम को भी आगे बढ़ाया।