सौभाग्य प्रकाश संयम सवर्णोत्सव चातुर्मास खाचरोद
भगवान निर्वाण मुक्ति का उपदेश करते है, अनासक्त भाव से यह बात बताते हुए पुज्य प्रर्वतक की प्रकाश मुनि जी मा.सा. ने फरमाया की→ बोधिदाता – ——–नमः
हम सब मुर्ख है कि मूढ़ ? मुर्ख बनाया जाता हे मूढ़ होता है। जिसके पास विवेक नहीं होता वह *मुढ़* होता है *चालाकी से मुर्ख बनाया जाता हे।* मुढ़ता अन्दर का विषय है। *कार्य व अकार्य विवेक शून्य होना मूढ़ कहलाता है।* यह राग के कारण और प्रबल द्वेष मूढ़ बना देता है।
*राग* विवेक शून्य बनाता है। मुढ़ता-विवेक शुन्यता । यह मुढ़ जीव है वह आसक्ति में उलझा है। राग-आसक्ति का कारण है। हम कितनी जगह आसक्त हे, राग के कारण से जिसके बिना रहा नहीं जाय उसका नाम *आसक्ति* । राग आसक्ति का फल दो रूप में आता हे *संताप – असंतुष्टि* रूप में आता है। आसक्ति, अंसतुष्टि व संताप पैदा करती है जीव नये-नये कर्म बांधता है।
हम ओर- गुरु जी खाते एक वस्तु है हम *आसक्ति* से खायेंगे – बोलकर कर्म प्रबल करते है, *राग भाव* पुष्ट होता हे राग से कर्म गाढ़ा बंधता हे। ज्ञानी जब खाते है तब स्वाद नहीं लेते हे, उससे खाने में फर्क नहीं पड़ता। हमारी आदत प्रतिक्रिया की रागात्म क्रिया की। हमारे खाने में कर्म बंध रहे हे ओर भवी जीव खाते हुए कर्म तोडते भी है।
पुदगल के दो गंध हे ..सुगंध – दुर्गंध दो ही है।
*दृष्टांत* → राजा जीत शत्रु – ने सुबुद्धि मंत्री से नाला पार करने के बाद से पुंछा दुर्गंध नहीं आ रही है , वो बोले यह पुद्गल का धर्म है आज सुगन्धित है कर असुगन्धित होगा। *जो अच्छी वस्तु हे वह बिगड़ती हे* पुदगलो का स्वभाव है। पुदगल का स्वरूप *संसरती इति संसारम* – जो चलता है वह संसार है। पुदगल कभी अच्छे – कभी बुरे। यह विक्रत भी होता है।
तत्व को समझकर इंद्रियों के प्रतिकुल विषय में पुदगल का स्वरूप समझकर विवेक नहीं खोना। पुदगल का धर्म हे …वहाँ घृणा नहीं करना ।
परमात्मा जगाते हे… जागो पुद्गल की आसक्ति, राग द्वेष से दूर हटो, जो राग द्वेष से विमुख हो जाते हे तो कर्म नहीं बँधते है। पुदगल का धर्म है सुगंध, दुर्गंध आती है।