राजस्थान के अजमेर जनपद में वर्ष 1985 में 14 सितम्बर को नंदलाल चौरड़िया और भगवती देवी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी तो उनकी गोद में किलकारी और भगवत भजन से वातावरण मनमोहक हो उठा।
बालक थोड़ा बड़ा हुआ तो धर्मनिष्ठ दंपत्ति उसे भी भगवान महावीर के श्रीचरणों और मुनियों श्रीवचनों का रसास्वादन कराने ले जाने लगे। यह वो बालक था, जिसे समाज को धर्म व सदाचार का पाठ पढ़ाना था। यही आगे चलकर मुनि संयमरत्न विजय के रूप में धर्म ध्वजा के वाहक बना।
दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व इनका बचपन का नाम मनीष था। परिवार के संस्कारों और माता—पिता द्वारा दी गई शिक्षा ने मनीष को बाल्यकाल में ही ईश भक्ति की ओर उन्मुख कर दिया। मनीष ने वर्ष 2000 में अपनी दसवीं की पढ़ाई पूरी की, लेकिन उनका मन धर्म व साधना में अधिक रमने लगा।
यही समय था बालक मनीष के जीवन में परिवर्तन का। मनीष का जन्म पारिवारिक जीवन जीने के लिए नहीं बल्कि लोगों का कष्ट हरने और लोगों को अलौकिक दुनियां का ज्ञान देने के लिए हुआ था। जैसे—जैसे दिन बीतता जा रहा था धर्म मार्ग पर जाने की मनीष की इच्छा प्रबल होने लगी। वह दिन आ ही गया।
24 जनवरी वर्ष 2004 को मनीष ने जालोर जिले के सियाणा गांव में युगप्रभावकाचार्य श्रीमद विजय जयन्तसेन सूरीश्वर जी म़ा सा से दीक्षा ले ली। परिवारवाले और माता—पिता भी मनीष के जीवन के लक्ष्य साधने के बीच बाधा नहीं बनना चाहते थे। अत: उन्होंने भी हंसते मुख से मनीष की विदाई की। संन्यास आश्रम में प्रवेश के बाद इनका नाम मनीष से मुनि संयमरत्न विजय हो गया।
दीक्षा लेने के बाद मुनि संयमरत्न विजय स्नातक और परास्नातक किया और तत्पश्चात दर्शनशास्त्र में पीएचडी की। पिछले 14 वर्षों में मुनिवर ने दक्षिण के लगभग सभी राज्यों कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, पोंडीचेरी, तमिलनाडु के अलावा दिल्ली, मध्यप्रद्रेश, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा का विहार करते हुए 40,000 किमी चले।
मुनि संयमरत्न समाज को दिशा दे रहे हैं और धर्म—संस्कार जागरण के माध्यम से समाज की इकाई व्यक्तियों को सांस्कारित करते हुए परिवार नामक संस्था को सफल व सुंदर बनाने तथा धर्मनिष्ठ व सुदृढ़ परिवार के माध्यम से सुंदर समाज और श्रेष्ठ राष्ट्र के निर्माण को प्रेरित कर रहे हैं।