ऊँ अर्हम् *खमत-खामणा* - एक शब्दार्थ
हर प्राणी का सम्यक्त्व दायित्व होना चाहिए कि अपनी भूलों के लिए क्षमा मांगे, क्षमा प्रदान करे।
भगवान महावीर की वाणी के अनुसार जो अपनी गलतियों का प्रायश्चित नहीं करता, वह संसार में भव-भ्रमण करता रहता हैं। जैन धर्म के अनुयायियों के लिए तो अतिआवश्यक है कि वे उसी समय या ज्यादा से ज्यादा सम्वत्सरी के दिन तो अपनी भूलों का प्रायश्चित जरूर करले। नहीं तो महाव्रत/अणुव्रत में दोष के साथ खण्डन होने की भी संभावना हो सकती हैं।
वर्तमान में मैत्री पर्व पर क्षमा के लिए कई शब्दों का प्रयोग होता है, उनमें से है –
♦ मिच्छा मि दुक्कड़म् – भावार्थ : मेरे यह पाप दुष्कृत्य हो, मिथ्या हो, निष्फल हो। अपनी भूलों के लिए प्रायश्चित करना। आत्मग्लानि के भाव होते हैं।
♦ क्षमायाचना – यानि अपनी गलतियों के लिए क्षमा की याचना, निवेदन करना।
♦ खमत-खामणा – अर्थात स्वयं क्षमा मांगना और दूसरों को भी क्षमा दान देना।
प्रथम शब्द का प्रयोग तभी होता है, जब हमको पता हो कि हम से क्या भूल हुई है। उस पाप, भूल को निष्फल करने के लिए “मिच्छा मि दुक्कड़म्” का प्रयोग होता है। इसमें ना तो क्षमा मांगी जा रही है, ना ही क्षमा दी जा रही है। मात्र अपने पाप, दुष्कृत्य को निष्फल करने की कामना और पश्चाताप का भाव होता हैं।
दूसरे क्षमायाचना शब्द में मात्र सामने वाले से क्षमा मांगी जाती का अवबोध होता हैं।
तीसरे खमत-खामणा शब्द में क्षमा का आदान-प्रदान होता हैं। दोनों क्रियाएं एक साथ हो जाती हैं। “खमत खामणा” में सरल मन से अपनी ज्ञात-अज्ञात भूलों, दुष्प्रवृत्तियों और दुष्कृत्यों के लिए क्षमा की मांग भी है और यदि किसी की, किसी बात से ठेस लगी हो तो उसे भुलाकर, उसके बिना मांगे क्षमा कर देने का भाव भी है।
गणाधिपति गुरुदेव तुलसी के गीत का एक पद्य हैं –
खमत-खामणा छव अक्षर में अर्थ अनोखो झांको।
पर रो खमण, नमन निज रो हैं, भ्रमण मिटै ओ उभयां को।
पुज्य गुरुदेव तुलसी फरमाते थे कि हम मात्र क्रियात्मक नहीं, भावात्मक भी बने। उसके लिए हम अपने व्यवहार में कौनसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, उनके शब्दार्थ का बोध भी करें।
आज कल मैत्री दिवस के अवसर पर जो “मिच्छा मि दुक्कड़म्” का प्रयोग हो रहा है, यह गलत है, अज्ञान हैं। लीक से हटकर कुछ करने की इच्छा है और जो कुछ भी नया चलन में आता दिखे, उसकी नकल करने की प्रवृत्ति है।
“मिच्छा मि दुक्कड़म्” और “खमत खामणा”, दोनों जैन दर्शन के शब्द हैं, लेकिन दोनों समान अर्थ वाले पर्यायवाची वाक्यांश नहीं हैं। दोनों के अर्थ बिल्कुल अलग हैं। अतः हमारा दायित्व है कि हम शब्द के अर्थ को जान, जैन दर्शन के अनुरूप, सही शब्दावली का प्रयोग करें। केवल आकर्षक शब्दों के जाल में नहीं फसें।स्वरूप चन्द दाँती उपासक चेन्नई, बालोतरा