चेन्नई. एमकेबी नगर जैन स्थानक में विराजित साध्वी धर्मप्रभा ने कहा भारतीय संस्कृति दान, तप, वैराग्य एवं अहिंसा की संपदा से संपन्न रही है। विषम परिस्थितियों में भी इनकी विशिष्टता में कोई परिवर्तन नहीं आया।
यह गौरवशाली संस्कृति विश्व को मार्गदर्शन देती रही है। इतना जरूर है कि मूल स्वरूप में बदलाव नहीं आया लेकिन इस महान संस्कृति के आध्यात्मिक पहलू को भुलाकर मानव ने भौतिक साधनों की लिप्सा को ही अपना ध्येय मान लिया है।
जड़ता की महत्ता को स्वीकार कर लिया है। विज्ञान और पाश्चात्यकरण ने सभी अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है लेकिन इन्हीं परिस्थितयों के बीच रहते हुए भी अनेक आत्माओं ने इन संसार की विषमताओं को त्यागकर संयम पथ को अपना ध्येय बनाकर सर्वोच्च स्थान पाप्त कर लिया है।
साध्वी स्नेहप्रभा ने कहा जब कभी कर्म निर्जरा होते-होते मानव गति प्रतिबंधित कर्मों का क्षय या क्षयोपशम होकर आत्मा कुछ विशुद्धि प्राप्त करती है जब मानव की आत्मा को मानव जन्म मिलता है।
मानव जन्म को रोकने के हेतु हैं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग। जब आत्मा इन पांच हेतुओं को पृथक करती है, क्षमा आदि दसविध यति धर्म का पालन करती है तब उसका संयम रूपी यश व गुण अधिकाधिक बढ़ जाता है।
ऐसी आत्मा शीघ्र ही औदारिक शरीर को छोडक़र ऊध्र्वगति स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त करती है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग ये पांच आश्रव बताए गए हैं। इन आश्रवों के माध्यम से शुभाशुभ कर्म हमारी आत्मा में प्रवेश करते हैं और यही कर्म हमारी आत्मा रूपी नाव को संसार रूपी विशाल समुद्र में डुबो देती है।