चेन्नई : यहाँ विरुगमबाक्कम स्थित एमएपी भवन में चातुर्मासार्थ विराजित श्री कपिल मुनि जी म.सा. ने 21 दिवसीय श्रुतज्ञान गंगा महोत्सव में उत्तराध्ययन सूत्र पर आधारित प्रवचन माला के तहत रविवार को कहा कि इस संसार में मनुष्यत्व, धर्म श्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम इन चार चीजों का मिलना बेहद कठिन है ।
इस मनुष्य जीवन रुपी किनारे पर पहुँचना तभी संभव है जब व्यक्ति ने पुण्य अर्जन किया हो । मुनि श्री ने कहा कि सभी ग्रंथ, पंथ और संतों का मनुष्य जीवन की दुर्लभता के कथन का अभिप्राय यही है कि व्यक्ति कहीं इस जीवन की उपलब्धि को तुच्छ घटना मानकर सिर्फ खाने कमाने और आमोद प्रमोद में सिमट कर जीवन को दांव पर न लगा बैठे।
इस दुर्लभ जीवन का उद्देश्य इंद्रियों के विषय सुख की प्राप्ति नहीं बल्कि शाश्वत आत्म सुख को प्राप्त करना है । मुनि श्री ने कहा कि जीवन निर्वाह की कला का ज्ञान तो सृष्टि के प्राणी मात्र को हासिल है मगर जीवन निर्माण की कला का ज्ञान तो सिर्फ मनुष्य जीवन में ही संभव है । मुनि श्री ने कहा कि संसार की सभी कलाओं में धर्म कला सर्वोपरि है ।
इस कला के अभाव में पशु और मनुष्य में कोई ख़ास फर्क नहीं रह जाता है । जीवन में प्रत्येक प्रवृत्ति होश और सावधानी पूर्वक की जाए तो कर्म बंधन से बचा जा सकता है । मनुष्य जीवन एक विराट अवसर है चेतना के परिष्कार और उर्ध्वारोहन का ! एक संभावना है कि हम इस अस्तित्व की मौलिकता को समझ कर जीवन को निखार सकें और एक गौरवपूर्ण जीवन निर्मित कर सकें ।
जीवन और संसार में दु:ख है। यह कोई निराशावादी घोषणा नहीं है बल्कि प्रगट रूप में संसार का जो स्वरूप है , यह उसी का चित्रण और वर्णन है। सोए हुए लोगों का संसार यानि जो मनुष्य शरीर धारण करने मात्र से ही स्वयं को मनुष्य तो मान बैठे हैं , किन्तु दु:खी हैं , व्याकुल हैं । लेकिन एक मार्ग है इस दु:ख से मुक्ति प्राप्त करने का। जीवन के प्रत्येक पल को सावधानी पूर्वक जीते हुए यदि हम एक जागृतिपूर्ण जीवन जीते हैं तो दु:ख मिट सकता है।
जीवन उत्थान और योग्यता के विकास की एक सम्यक प्रक्रिया ही धर्म है। धर्म आंख खोलने की विधि है। यदि आंखें खुली हों तो मार्ग स्वतः बन जाता है। खुली आंखों से यह देख पाना संभव है कि जीवन न सुख है , न दु:ख। जीवन तो बस जीवन है। यह हम पर निर्भर करता है कि इसे एक उत्सव बनाकर जीते हैं अथवा तमाशा ।
जीवन की व्यर्थता का वर्णन करने या उसे धिक्कारने से कुछ न होगा। ऐसा करके तो हम केवल उस आनंद से वंचित होंगे । उन्होंने आगे कहा कि हमारे जीवन में जो हमें मिलना चाहिए, यदि वह हमें प्राप्त हो जाता है तो हमें अपने जीवन का अर्थ मिल जाता है। सभी जीवों से प्रेम करना एवं अपने आराध्य से प्रेम करना ही हमारे जीवन का असली लक्ष्य होना चाहिए ।
इसी में ही मानव जीवन की सार्थकता है । निःस्वार्थ भाव से किये कर्म से ही शुभ प्रयोजन, आनन्द और अमरत्व पाया जा सकता है। सेवाभाव का सौंदर्य हमारे अंदर सदा रहता है, हमें केवल उसे खोज कर उजागर करना होता है। निजीस्वार्थ और नाम की भूख से मुक्त हुए बिना धर्म आचरण और समाज सेवा नहीं की जा सकती ।निःस्वार्थ कर्म ही सेवा उपासना का ही दूसरा रूप है ।
जिस व्यक्ति की जितनी सामाजिक स्थिति है, जितना दायित्व है, उसे अपना कर्तव्य निभाना उसी के अनुसार ही शोभा देता है सदा अपना कर्तव्य का पालन निःस्वार्थ भावना से करना चाहिए । प्रवचन के पूर्व श्री उत्तराध्ययन सूत्र के मूल पाठ का पारायण किया गया । धर्म सभा का संचालन मंत्री महावीरचंद पगारिया ने किया ।