चेन्नई. चरित्र का इत्र हमें पवित्र बनाता है। चरित्र ही हमारा सच्चा मित्र है। यदि हम चाहते हैं कि हमारे जीवन में चरित्र ग्रहण करने का योग आए, तो हमें चारित्रधारी संतों की खूब सेवा-भक्ति करना चाहिए।
साहुकारपेट में स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय कहा ज्ञान और दर्शन गुण में रमणता करना ही चारित्र है। आत्मगुणों में रमण करने से हमारी भावलेश्या भी शुद्ध होती है। केवलज्ञान गृहस्थ अवस्था में हो सकता है, पर वे जगत के लिए वंदनीय तभी होते हैं,जब वे चारित्र ग्रहण करते हैं।
जो चारित्रवान आत्माओं की निंदा करते हैं वे कभी भी चारित्र ग्रहण नहीं कर पाते। सिद्धचक्र के नौ पदों में चारित्र पद का महत्व दिखता है। नवपदों में अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय और साधु तो प्रत्यक्ष चारित्र से युक्त दृष्टिगोचर होते हैं। सिद्ध पद में सिद्ध भगवंत की जो ज्ञान-दर्शन में रमणता है, वही उनका चारित्र है। दर्शन और ज्ञान का फल चारित्र है, उसमें भी चारित्र का समावेश है और तप तो खुद चारित्र का फल है।
इच्छाएं अनंत होती हैं और इन इच्छाओं को रोकने का कार्य तप करता है। तप कर्म निर्जरा का एक अनुपम साधन है। तप वही करना चाहिए, जिससे शरीर में स्फूर्ति का अभाव न हो, मन में अमंगल का चिंतन न हो। तप का अजीर्ण क्रोध है। तप करने के बाद हमारे क्रोध, मान, माया, लोभ घटने चाहिए। उपवास करके टीवी, मोबाइल, फेसबुक में समय बर्बाद करना तो तप का अपमान है।
तप करूंगा तो मुझे सोने-चांदी की चेन या सिक्के मिलेंगे ऐसे प्रलोभन से तप नहीं करना चाहिए। ऐसी तपस्या कर्मबंध का कारण बन जाती है। जो तपता है, वही पकता है। तप धर्म से आहार संज्ञा, भाव धर्म से भय संज्ञा और दान धर्म से परिग्रह संज्ञा घटती है। विश्वसुंदरी बनने की अपेक्षा सिद्धचक्र की साधना करके नारियों को मैनासुंदरी बनना चाहिए।
सिद्धचक्र की आराधना करने से जब श्रीपाल और सात सौ साथियों का कोढ़ रोग समाप्त हो सकता है, तो हमारा भवरोग भी खत्म हो सकता है। सौ से अधिक आराधकों ने राजेन्द्र भवन में नवपद ओली की आराधना की। इस अवसर पर मुनि संयमरत्न विजय की भी वर्ण सहित एक धान की नवमी नवपद ओली परिपूर्ण हुई, जिसका पारणा 26 अक्टूबर को होगा।