किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी ने प्रवचन में कहा कि जिनशासन सूक्ष्मता के साथ समझाता है। मात्र आराधना से मोक्ष नहीं मिलता। आराधना कैसी हो रही है, राग द्वेष कितना कम हुआ, इस पर निर्भर है। परमात्मा के प्रति अहोभाव से की हुई भक्ति से मोक्ष प्राप्त होता है। योग का अर्थ है जोड़ना और तोड़ना। सही के साथ जुड़ना और गलत के साथ टूटना, यही योग है। गलत तो हमारे साथ अनादिकाल से जुड़ा हुआ है। योग का मतलब यही है जो मोक्ष के लिए हमें जोड़ता है और रास्ता भटकाने वाली चीजों को तोड़ता है।
उन्होंने कहा कि योग को कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है। कल्प यानी इच्छानुसार वस्तु मिल जाना। आज कल्पवृक्ष नहीं है, इसलिए मेहनत से ही हर चीज पानी पड़ती है। योगशास्त्र नवकार मंत्र के नौ पदों में निहित है। तप पूर्व कर्मों को तोड़ने का कार्य करता है और जप परमात्मा से जोड़ता है। शरणागति चार बताई गई है। कई लोग कहते हैं हमें समता व मध्यस्थ भावना रखनी है, यह अज्ञानता की पहचान है। ऐसी अवस्था में सम्यक्त्व से दूर होकर मिथ्यात्व में चला जाना है।
उन्होंने कहा कि विवेकता व प्रधानता देकर देव, गुरु, धर्म को मानना चाहिए। जिनशासन मे छत्तीस गुणों का पालन करने वाला आचार्य होता है। उनका पहला गुण बताया गया है पांच इंद्रियों पर संयम कर कषायों को नियंत्रण करना। उन्होंने कहा कि आज का पापी कल पुण्यशाली बन सकता है। मरीचि के भव से आगे जाकर परमात्मा महावीर बने। हम मंदिर में जाने से पूर्व तीन बार निसिह शब्द का प्रयोग करते हैं। पहले निसिह का मतलब है मैं एक साधारण स्वरूप में श्रावक हूं। दूसरा संबंधों को भूलकर मंदिर में प्रवेश करने का कहा गया है। तीसरा निसिह इसलिए कि शरीर व द्रव्य पूजा से भी दूर हो जाना है।
मंदिर में तीन दिशाओं का निरीक्षण का त्याग करना होता है। हमें पूर्व दिशा, अधो दिशा और तिरछी दिशा में नहीं देखना है। उपकार की दृष्टि से अरिहंत श्रेष्ठ है। इसलिए उन्हें पहले नमस्कार किया जाता है। गुणों में सिद्ध बड़े होते हैं लेकिन सिद्ध का स्वरूप अरिहंतों ने बताया है। मंदिर में दर्पण दर्शन भाव दर्शन के लिए किया जाता है ताकि परमात्मा की छवि हृदय में बसी रहे। स्वस्थ अवस्था में आराधना करना अस्वस्थ अवस्था में आराधना करने की बजाय उपयोगी है। इसके लिए स्वस्थ अवस्था में अभ्यास करना जरूरी है। मैं अरिहंत के वचन को मानता हूं, अरिहंत के वचन को ही मानता हूं, अरिहंत का मानता हूं और अरिहंत का ही मानता हूं ऐसी भावना होनी चाहिए।