साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय, भुवनरत्न विजय ने कहा जो मानव माता-पिता के हितकारी चरणों की पूजा करता है, उसकी यश-कीर्ति चारों दिशाओं में फैलने लगती है।
उसे तीर्थों की यात्रा का फल मिल जाता है, वह सज्जनों के हृदय को आनंदित करता है, उससे पाप का विस्तार दूर हो जाता है, कल्याण की परंपरा को प्राप्त करके वह अपने कुल में धर्म-ध्वजा को लहराता है। पवित्रता व पुण्यता के पुंज समान माता-पिता की जहां भक्ति होती है,वहां पर जैसे समुद्र के प्रति नदियां स्वत: आकर्षित हो चली आती हैं, वैसे ही उसके पास लक्ष्मी स्वत: चली आती है।
जैसे हरे-भरे वृक्ष की ओर पक्षी खुद चले आते हैं, वैसे ही सुख सुविधाएं स्वत: चली आती है और पानी में जैसे कमलों की श्रेणियां फैलने लगती है, वैसे ही पितृ-भक्त का मान-सन्मान बढऩे लगता है।
माता-पिता के मनोहर चरणों की पूजा करने से जैसी शुद्धि हमारे भीतर होती है, वैसी शुद्धि तो तीर्थों के पवित्र जल से स्नान करने से, सिद्ध प्रभु के शुद्ध जाप से, मनोहर आचरण से, शास्त्र सुनने से, लक्ष्मी का दान करने से तथा व्रतों के पालन करने से भी नहीं होती।
इस कलियुग में माता-पिता की निरंतर भक्ति करना अर्थात् जंगल में देवगंगा का प्रकट होना, मनवांछित फल देनी वाली कामधेनु का दरिद्र के घर में प्रवेश करना तथा मारवाड़ की धरती पर कल्पवृक्ष की उत्पत्ति होने के समान है।
जिस माता-पिता की कृपा से हमें पूर्ण अंगों के साथ जन्म मिला, हाथी के समान सुदृढ़ युवावस्था प्राप्त हुई, ऐसे माता-पिता के चरणों की सेवा सपूत अवश्य करता है। मां के गर्भ में नव मास तक रहने के कारण ही मनुष्य को मानव कहते हैं।