नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि आत्म बंधुओं अकाम माया का उपदेश श्री उत्तरायण के पाँचवे अध्ययन में दिया। भगवान कहते है कि मरण के अर्थ को समझो मरण भी धर्म -ध्यान से युक्त होना चाहिए। अन्तिम सांस तक मन में धर्म का वास होना चाहिए धर्म रग-रग में खुन की हर बूंद में होना चाहिए । हर पल, हर समय धर्म स्मृति में होना चाहिए। ये भूलने योग्य नहीं।
जो धर्म को याद रखता है उसका मरण धर्मज्ञ होता है जो धर्म को भूल जाता है उसका मरण धर्म युक्त नहीं होता। जैसे आभूषण को जीवन पर्यन्त के लिए धारण करते है वैसे ही धर्म को जीवन पर्यन्त के लिए ही धारण करना चाहिए। ज्ञानीजन कहते है पति-पत्नी गाड़ी के दो पहिये के समान है कोई छोटा कोई बड़ा नही । विवाह के समय दोनो को समान संकल्प दिये जाते है।
जैसे वर-वधु एक बार दोनों को स्वीकार कर लेते है तो अन्तिम सांस तक एक दूजे का साथ देते है वैसे ही धर्म को एक बार धारण करने बाद अन्तिम श्वास तक धर्म-पालन करना चाहिए। जैसे अपने श्वासो के प्रति प्रेम है प्रीत है वैसे धर्म से भी प्रीति होनी चाहिए। बिना खर्च के आप धर्म पालन कर सकते है। दिन रात धर्म ध्यान में लगे रहने से इतने कर्मो की निर्जरा हो जाती है कि मरण का भय भी नही रहता । धर्म से युक्त मरण पंडित मरण कहलाता है। धर्म से विहीन मरण अकाम मरण कहलाता है। धर्मी व्यक्ति मरण के समय चारों आहार का प्याग करता है कोई कामना
नही रखता न इस भव के न पर भव के सुख की अभिलाषा करता है। अपनी इन्द्रियों को वंश में कर अपने आत्म स्वभाव में रमण करते हुए पापों की आलोचना कर नये व्रतों को धारण कर लेता है और अन्तिम समय सुधार लेता है।