चेन्नई. मन यदि शुभ है तो मरुदेवी की तरह कल्याण मार्ग पर बढ़ सकता है और मनोबल अशुभ बना तो कालू कसाई की तरह जीवन बिगड़ जाता है। आश्चर्य की बात है कि तन को बिठाने के लिए तीन फीट जगह चाहिए और मन को बिठाने के लिए चौदह रजनु लोक भी कम पड़ रहे हैं।
ताम्बरम जैन स्थानक में विराजित साध्वी धर्मलता ने कहा मानव का मन सागर सदृश है। सागर पर लहरें नाचती रहती हैं और लहरों पर ही लहरों का जन्म होता है। नई-नई लहरें जन्मती एवं पुरानी लहरें विलीन होती रहती हैं। यह चक्र अनादिकाल से अनवरत चला आ रहा है। मानव मन में भी प्रतिपल विचारों की लहरें एवं भावों की तरंगें उठती रहती हंै लेकिन सागर और मानव मन में उठने वाली लहरों में एक अंतर होता है।
सागर की लहरों का गुण-धर्म एक समान है जबकि मानव के भाव दो प्रकार के हैं-शुभ और अशुभ। शुभ भाव से उत्थान होता है और अशुभ भाव से पतन। यह शुभ भाव बन गए तो कर्म निर्जरा होगी और आत्मा मोक्ष मार्ग की पथिक बन जाएगी। मानव का मन ही शत्रु और मित्र की फैक्ट्री का निर्माण करता है। अब यह आप पर निर्भर है कि कौनसी फैक्ट्री का मालिक बनना चाहते हैं।
साध्वी सुप्रतिभा ने कहा पैर फिसल जाए तो संभलना एवं कलंक लग जाए तो धुलना मुश्किल है, यदि एक बार मानव जीवन हार गया तो पुन: मानवता मिलना मुश्किल है। मानव और मानवता में इतना ही अंतर है जैसे मिट्टी और प्याला। मौत को टाला नहीं जा सकता लेकिन सुधारा जा सकता है। जन्म और मृत्यु दोनों ही हमारे हाथ में नहीं हैं लेकिन दोनों के बीच जीवन कैसा जीना है यह हमारे हाथ में है। केवल मानव भव में ही मोक्ष मिल सकता है।