चेन्नई. साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित संयमरत्न विजय व भुवनरत्न विजय ने गुरु को तुम नहीं खोजते, गुरु तुम्हें खोजता है- विषय पर प्रवचन में कहा पानी की पहचान प्यास से होती है, शास्त्रों में लिखी परिभाषा से नहीं। साधक में यदि साधना की गहरी प्यास हो तो सद्गुरु स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं।
साधक खोजी, आकांक्षी व अभीप्सा से भरा होता है। जितनी गहरी व छिछली पीड़ा होती है, उतनी ही गहरी व छिछली तृप्ति होती है। यदि हम साधक हैं तो गुरु के मिलते ही हमारे प्राण गुरु से जुड़ जाएंगे, कोई बताने की जरूरत नहीं रहेगी। कोई लोभ से तो कोई भय के कारण साधना में प्रविष्ट होता है।
कोई डर के कारण गुरु के पास जाता है तो कोई लोभ के कारण गुरु की सेवा करता है। भयभीत और लोभी प्राणी कभी भी साधक नहीं बन सकता। नाटक करके महावीर, बुद्ध, राम तो हर कोई बन सकता है, लेकिन राम, महावीर व बुद्ध दुबारा नहीं आ सकते।
गुरु की परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता स्वयं की परीक्षा करने की है। मां-बाप सिर्फ जन्म देते हैं, जीवन तो गुरु से ही मिलता है। गुरु स्वयं शक्ति संपन्न होते हैं, मगर वे अपनी शक्ति पर इतराने के बजाय खुद भव सागर से तिरते हैं और भक्तों को भी तारते हैं। गुरु के बिना जीवन अधूरा है।
गुरु एक फेमिली डॉक्टर है जो हमारे मन के रोगों का उपचार करते हैं। मां न हो तो हम संसार में नहीं आ सकते और गुरु न हो तो हम संसार से मुक्त नहीं हो सकते। 22 नवंबर को चातुर्मास पूर्णाहुति के अवसर पर मुनिद्वय की मंगलमय विहार यात्रा के लिए धर्म सभा का आयोजन होगा।