साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय के सान्निध्य में प्रभु महावीर का जन्मोत्सव मनाया गया। अपने हाथों में कांच पकड़ कर फिरता हुआ नेत्रहीन प्राणी जिस प्रकार अपना चेहरा नहीं देख सकता, वैसे ही मन की शुद्धि किए बिना धर्म करने वाला प्राणी भी मोक्ष नहीं जा सकता। मुक्ति रूपी स्त्री को वश में करने के लिए दूती के समान ऐसे मन की शुद्धि धारण करने की इच्छा यदि हमारे मन में हो तो कंचन-कामिनी (स्त्री) की ओर जाते हुए अपने मन-हृदय का रक्षण करना चाहिए, क्योंकि जिस तरह पत्थर की शिला पर कमल नहीं उगते वैसे ही लोभ व लाभ के चक्कर में पड़ेे जीव को आत्मधन की प्राप्ति नहीं होती।
मन की शुद्धि होने पर ही जन-जन के मन में वर्धमान महावीर बसते हैं। यदि हमारी वाणी विकार रहित हो, नेत्र समता युक्त हो, पवित्र मुख पर उत्तम ध्यान की मुद्रा हो, गति मंद-मंद प्रचार वाली हो, क्रोध आदि का निरोध हो तथा वन में भी आनंद-प्रेम रहता हो तो क्लेश रूपी आवेश के प्रवेश को रोकने वाली मन की शुद्धि स्वत: ही हृदय में प्राप्त हो जाती है। यदि पुण्य को सफल करने में कारण रूप ऐसी मन की शुद्धता न हो तो शरीर को भष्म लगाने से क्या लाभ? पृथ्वी पर लोटने से, जटा बढ़ाने से, शरीर को वस्त्र रहित रखने से, बालों का लोच कराने से तथा अधिक तपस्या करने से भी क्या लाभ? इसलिए मन की शुद्धि के बिना सब कुछ व्यर्थ है। समता की शोभा बढ़ाने वाले प्राणी यदि जगत में स्वच्छंदता से भ्रमण करने वाले चित्त रूपी राक्षस को पुण्य के कारणभूत मनोहर मंत्रों द्वारा यंत्रित करके वश में कर लेते हैं तो वह मानव सर्व सुखों का पोषण करने वाले मोक्ष रूपी महल में हमेशा निवास कर लेता है।