बेंगलुरु। आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने बुधवार को अपने चातुर्मासिक प्रवचन में कहा कि मन की मलीनता मनुष्य को पुण्य और दैवीय संस्कारों से दूर ले जाती है।
जो मनुष्य की सोच व कर्म आसुरी प्रवृत्ति की श्रेणी वाला होता है वह कभी भी अच्छे कर्मों के बारे में नहीं सोच सकता है। उन्होंने कहा कि ऐसे ही स्वभाव वाले लोग दूसरों को हमेशा कष्ट देकर पाप के भागीदार बनते है।
आचार्यश्री ने कहा कि आत्मा और मन की शुद्धि मनुष्य के जीवन का दर्पण है। वे आगे बोले, व्यक्ति सदमार्ग पर और स्वच्छता के मार्ग पर चलना चाहते हुए भी असमर्थ है। चारों ओर से बहने वाला तूफान श्रेष्ठता के बजाए अनिष्ठकारी वेग के रूप में ज्यादा है।
कुछ ऐसे लोग है जो इस रास्ते पर डटकर मुकाबला करते हुए चल रहे हैं परन्तु ऐसे लोगों की तादाद बहुत कम है। जाहिर सी बात है कि जो लोग ऐसे पथ के पथिक हैं उनके रास्तें में अड़चने और मुश्किलों का अम्बार है।
जिससे देखकर लोगों को भ्रम हो जाता है कि आखिर यह मार्ग सही है या गलत है क्योंकि बुराइयों और मलीनता के बहाव में बहने वाला हर व्यक्ति अपने को सही और बेहतर बताने के लिए लगा रहता है।
पुण्य को बनाएं जीवन का आधार भले ही आडम्बर और व्यर्थ कर्मों के साथ कुछ समय के लिए लोग खुद को सही मानते है परन्तु सत्य और पुण्य कर्म मनुष्य को हमेशा प्रभावित करते रहते हैं।
यही वजह है कि विश्व में अपार धन दौलत वाले लोग भी आनन्द, स्वच्छता और स्वास्थ्य के लिए प्रयासरत है। उन्होंने कहा कि ऐसे में जरूरी है कि हम आत्मा और मन की स्वच्छता के लिए पुण्य कर्म करें। पुण्य कर्म से ही हम सुखी होंगे और समाज को इसका लाभ मिलेगा।