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मन और आत्मा को निर्मल बनाने का पर्व है पर्युषण महापर्व- उपाध्याय युगप्रभविजयजी

मन और आत्मा को निर्मल बनाने का पर्व है पर्युषण महापर्व- उपाध्याय युगप्रभविजयजी

किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी महाराज ने प्रवचन में कहा कि पर्युषण आराधक भाव से आराधना करने का पर्व है। आराधना जप, तप, त्याग को कहा जाता है। आराधना बहुत बार होती होगी, लेकिन जब मैत्री भाव हृदय में स्थापित होती हैं, तब आराधक भाव कहा जाता है। दूसरों का हित करने की भावना मैत्री कहलाती है। मैत्री, प्रीति तब ही आती है जब हृदय में क्रोध के भाव नहीं रहते। क्रोध मैत्री को तोड़ने का कार्य करता है।

उन्होंने कहा कि पर्व का मतलब है जो एक दूसरे को जोड़ने का कार्य करे। यदि धर्म के क्षेत्र में क्रोध आता है, तब वह गांठ का काम करता है। इसके लिए पर्युषण पर्व पर क्षमा की बात बताई गई है। क्षमा यानी दूसरों की भूल को भूल जाना और खुद की भूलों को याद रखना। उन्होंने कहा कि हमारे पास कोई क्षमा मांगने आए तो उसे ह्रदय से क्षमा कर देना चाहिए। अपने मन और आत्मा को निर्मल बनाने का पर्व है पर्युषण महापर्व।

उन्होंने कहा कि परमात्मा ने पर्युषण पर्व के पांच प्रमुख कर्तव्य बताए हैं पहला अमारि प्रवर्तन यानी अहिंसा का वर्तन जीवन में लाना, दूसरा साधार्मिक भक्ति, तीसरा आलोचना का अट्ठम, चौथा उपशम भाव पूर्वक की क्षमापना और पांचवा सामूहिक चैत्य परिपाटी। इसे असिआउसा के रूप में याद किया जा सकता है।

उन्होंने कहा कि चार कषायों क्रोध, मान, माया, लोभ में लोभ को सबसे ज्यादा खतरनाक बताया गया है। माया विश्वनीयता का नाश करती है। लेकिन लोभ सर्वनाश करता है। लोभ को डायरेक्ट जीतना बहुत कठिन है। जिसने क्रोध को जीता, वही मान को जीत सकता है। कर्म पुरुष पर प्रहार करने का कार्य पर्युषण पर्व करता है। क्षमा धारण करने के लिए दो चीजों का ध्यान रखना है, मुझे सहन करना है, मुझे ज्यादा सहन करना है और मैं सबसे छोटा हूं। जो अपने आपको छोटा समझेगा, वही सहन कर सकता है।

क्षमा करने के लिए नम्रता का गुण और क्षमा स्वीकारने के लिए उदारता का गुण होना आवश्यक है। हमारी जीवनशैली ऐसी उत्तम हो कि हमारी‌ धर्म आराधना से अनेकों को सहयोग मिल सके। स्वयं के जीवन में हमें कठोर बनना चाहिए, लेकिन दूसरों के जीवन में कोमल।

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