चेन्नई. वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा आगम में वर्णित महापुरुषों के जीवन चरित्र से सभी को जीवन जीने की कला मिलती है। अंतगड सूत्र में ऐसे साधकों का वर्णन है, जिन्होंने सब कुछ प्राप्त होते हुए भी उनका त्याग कर संयम का मार्ग अपनाया और संयम के बल पर अपना चरम एवं परम लक्ष्य अर्थात मोक्ष पाया।
पर्यूषण का तीसरा दिवस ज्ञान, दर्शन एवं चरित्र रूपी रत्नत्रय की आराधना की प्रेरणा देता है, जो रत्नत्रय की आराधना करता है, उसका मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। मुनि ने अंतगड सूत्र के तीसरे वर्ग के अंतर्गत श्री कृष्ण के सहोदर छह भाइयों का वर्णन किया।
श्री कृष्ण जब अपनी माता देवकी को वंदन करने के लिए पहुंचते हैं तो माँ की इच्छा पूर्ति करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। वास्तव में माता-पिता की इच्छाओं के अनुरूप आवश्यकताओं की पूर्ति करना हर पुत्र का कर्तव्य बनता है।
माता-पिता के उपकारों को चुकाने के लिए जब उन्हें वृद्धावस्था में सेवा की जरूरत होती है उस समय पुत्र को किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं बनना चाहिए। अपने सभी कार्यों को गोण करते हुए माता-पिता की सेवा करना प्रथम एवं मुख्य कार्य होता है। वृद्धावस्था में अकेलापन अखरने के कारण पुत्रों को माता-पिता का दुख दर्द जानने में समय देना चाहिए। मनुष्य साधन का नहीं वासत्व प्रेम का भूखा होता है।
माता-पिता की शिक्षाओं को ठुकराने वाला दर-दर की ठोकरें खाता है। जो माता-पिता की जीते जी सेवा नहीं करता, मरने के बाद उनके नाम पर चाहे कुछ भी किया जाए फलदाई नहीं होता। माता-पिता को नमस्कार करने से पुण्य बढ़ता है और हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। पुत्र चाहे कितना भी बड़ा हो जाए माता-पिता के सामने छोटा ही रहता है।
इस अवसर पर जयपुरंदर मुनि ने कहा पर्व दिवस आत्मा का पोषण करने वाले होते हैं । शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध होने पर साधक को शरीर के बजाय आत्म- पोषण की ओर ध्यान देना चाहिए। शरीर का चाहे कितना ही पोषण किया जाए वह एक दिन नष्ट होता ही है।