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मनुष्य शरीर रुपी गाड़ी ही मोक्ष के लिए उत्तम : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

मनुष्य शरीर रुपी गाड़ी ही मोक्ष के लिए उत्तम : गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

मृत्यु का कोई भरोसा नहीं, अत: आध्यात्मिक धर्म के लिए देरी नहीं करने की दी प्रेरणा

Sagevaani.com @चेन्नई; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में उत्तराध्यन सूत्र के पाँचवे अध्ययन के विवेचन में धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि दो रास्ते जा रहे हैं, हमें कौनसे रास्ते पर जाना है, उसका चयन हमें ही करना पड़ेगा। टिकट दिल्ली की ली और मुम्बई की ट्रेन में बैठ गए तो टीसी आते ही नीचे उतार देगा। इस जीवन से विदा तो हमें होना ही पड़ेगा। प्रश्न है कि हम विदा बहूमान के साथ होना चाहते है या अपमान के साथ? अपना जीवन, अपना आचरण ही तय करनेवाला है। एक पण्डित मरण का रास्ता है एक बाल मरण का रास्ता। संंसार के लिए, पैसों के लिए, भोगों के लिए जो रो रो कर मरता है, वह निश्चित रूप से उसका मरण असमाधि मरण है, अज्ञान मरण है। और जो यहां है तब भी आनन्द में है एवं विदा होने के समय भी आनन्द के साथ मरता है, हृदय में किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं है- वह पण्डित मरण है, समाधि मरण है।

◆ साधना के लिए मनुष्य से अच्छा कोई शरीर नहीं
गुरुवर ने कहा कि हम सभी को विदाई तो यहां से लेनी ही पड़ेगी। कोई निश्चित समय तय नहीं है, बचपन में भी जा सकता है, युवावस्था में भी। कहीं से कोई निमित्त मिल गया तो जाना पड़ेगा ही। कोई व्यक्ति यहां से दिल्ली जाना चाहता है, उसके लिए ये चार चीजें चाहिए- गाड़ी व्यस्थित चाहिए, रास्ता बढ़िया चाहिए, बिना ट्राफिक का हो और जो मिला उसे स्वीकार करना। हमें जो गाड़ी मिली वह बढ़िया नहीं मिली या पेट्रोल खत्म हो गया, फिर भी हम उसे परिवर्तित नहीं कर सकते, वह गाड़ी है, हमारा यह शरीर। चौरासी लाख योनी में इससे बढ़िया कोई गाड़ी नहीं मिल सकती। इसी गाड़ी से ही मोक्ष की यात्रा की जा सकती है। फिर हम इस गाड़ी से नरक के रास्ते के कार्य क्यों करें! पता नहीं वापस इस मनुष्य जन्म रुपी गाड़ी कब मिलेगी। इस शरीर को हमें एक दिन अवश्य छोड़ कर जाना ही पड़ेगा। इसका कोई भरोसा नहीं। साधना के लिए इससे अच्छा कोई शरीर नहीं है। फिर हमारा पुरुषार्थ भी उच्च हो।

गुरुवर ने सम्भवनाथ भगवान के समय की घटना का उल्लेख करते हुए प्रेरणा दी कि आयुष्य का कोई भरोसा नहीं, जीवन कब खत्म होगा, जान नहीं सकते। हमें धर्म का काम पहले करना चाहिए, व्यापार का, संसार के कार्य को दे। क्योंकि धर्म का रास्ता ही हमें आगे ले जा सकता है। आठ वर्षीय बालक भगवान से प्रवचन सुन दीक्षा ली और रजोहरण लेकर प्रसन्नता से भगवान को प्रदीक्षणा दे रहा है और तीसरी प्रदिक्षणा देते देते मृत्यु को प्राप्त हो गया।

◆ रोग, बुढ़ापा और मौत- इनसे बचना मुश्किल
विशेष पाथेय प्रदान करते हुए गच्छाधिपति ने कहा कि संसार के क्षेत्र में डाकू, चोर पिछे लगे है, उससे बचना आसान है। लेकिन ये जो तीन डाकू है- रोग, बुढ़ापा और मौत- इनसे बचना मुश्किल है। हो सकता है रोग और बुढ़ापे से बच भी जाये, लेकिन मृत्यु से कोई बच नहीं सकता। तीर्थंकर को भी मरणा पड़ता है। रास्ता यानि हमारा पुण्य अच्छा हो। किसी की पुण्यवत्ता अच्छी रहती है तो सदैव उसे व्यापार में, व्यवहार में लाभ होता है और कमी होने पर उसे हानि होती है।

तीसरी चीज यानि हमारा परिवार हमारा सहयोगी हो। हम सुनते हैं कि महाभारत का युद्ध परिवार के सदस्यों के बीच ही हुआ था। चौथा हमें गाड़ी छोटी मिली या बड़ी, काली या सफेद मिली, उसे स्वीकार करना। जितना पुण्य है, उसे स्वीकार करना और आगे के लिए पुण्योंपार्जन के लिए कार्य करना। परिवार जैसा मिला, उसी में सन्तुष्ट होना। हमारी गाड़ी का ड्राइवर नशेबाज नहीं होना चाहिए। हम भी तो नशे में है, मोहनीय कर्म के नशे में है। मोहनीय कर्म को शराब की उपामा दी जाती है। उससे तीन काम होते है- 1. मैं कौन हूँ, उसका भान नहीं रहता। 2. कहां हूँ और 3. क्या कर रहा हूँ, उसका भान नहीं रहता। हम मोहनीय कर्म में है या नहीं, इसका पता करने के लिए याद रहता है कि मैं श्रावक हूँ तो समझना चाहिए कि मैं शराब रुपी मोह में नहीं हूँ।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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