चेन्नई. एएमकेएम में विराजित साध्वी कंचनकुंवर व साध्वी डॉ.सुप्रभा ‘सुधाÓ के सानिध्य में साध्वी डॉ.हेमप्रभा ‘हिमांशुÓ ने भगवान महावीर की अंतिम देशना उत्तराध्ययन सूत्र मूल का नवें अध्ययन से वाचन कराया और उपरांत विवेचन करते हुए कहा कि प्रभु महावीर ने दसवें अध्ययन में कहा कि केवलज्ञान को पाने के लिए राग को जीतना परम आवश्यक है।
जीवन की नश्वरता है जैसे- वृक्ष पर लगा पत्ता हराभरा मनोहर लगता है, समय व्यतीत होने पर पीला पड़ता जाता है। समय निकलता है और एक हवा के झोंके से पत्ता गिर पड़ता है। महापुरुष कहते हैं जो नए उत्पन्न होते हैं उन्हें गिरते हुए पत्ते कहते हैं कि जैसे आज तुम हो वैसे हम भी थे, हम जिस दशा में आज हैं वैसी तुम्हारी भी होगी।
सदा एकसा जीवन किसी का नहीं रहा है। समय व्यतीत होता, आयुष्य बीतता है। इसी प्रकार यह मनुष्य जीवन भी क्षणभंगुर है, समयमात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। इसीलिए महापुरुष हमें प्रेरणा देते हैं कि कुश के अग्र भाग पर टिकी ओस की बंूद, हवा का झोंका या सूर्य की किरण पड़ते ही समाप्त हो जाती है, इसी प्रकार यह मनुष्य जीवन भी क्षणभंगुर है।
परमात्मा ने दस दुर्लभ बोल पर चर्चा की है- मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, उच्च गौत्र, निरोगी काया, लम्बा आयुष्य, पांचों इंद्रियां परिपूर्ण, साधु समागम, जिनवाणी पर श्रवण, जिनवाणी पर श्रद्धा, जिनवाणी पर पराक्रम करना आदि। जो निरंतर जीर्ण-शीर्ण हो उसे शरीर कहा जाता है।
मनुष्य शरीर नित्यप्रति जर्जर हो रहा है, पंचेन्द्रियां क्षीणता की ओर बढ़ रहा है, इस काया पर ममत्व आसक्ति न रखते हुए क्षणभर भी प्रमाद न करें। प्रेरणाप्रद अध्ययन है यह इससे भी कोई प्रेरणा नहीं लेता है तो प्रभु कहते हैं कि इससे अधिक कोई भी स्पष्ट नहीं बता पाएगा।
जितने क्षण भी आप अपने लिए दे सकें वही सार्थक और सफल होंगा। ग्यारहवें अध्ययन में तीन प्रकार के बहुश्रुत बताए हैं। तीन प्रकार के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट बहुश्रुत होते हैं। बहुश्रुत की पदवीं आचार्य मधुकरजी मुनि अलंकृत थे। यह अधिक विद्वान, आगमवेत्ता और दुर्लभ होती है। सोलह उपमाओं से उपमित किया जाता है, जो सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं।
विनयगुण बहुश्रुत की सबसे पहली आवश्यकता है। जो पांच दोषों से युक्त हैं वे कभी भी ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकते। अभिमानी, क्रोधी व्यक्ति, प्रमादीव्यक्ति, रोगी और आलसी व्यक्ति कभी भी ज्ञान अर्जन नहीं कर सकते।
बहुश्रुत बनने में इन बाधक तत्वों को दूर कर, शिक्षार्थी के आठ शील को धारण करना, विनीतता के पंद्रह लक्षण और 14 दोषाों को हटाना होगा। चारित्र स्वयं का कल्याण करता है, लेकिन साथ में ज्ञान हो तो स्व और पर दोनों का कल्याण करता है।
बारहवें अध्ययन में हरिकेशी मुनि यज्ञ करने वाले पुरोहितों को प्रतिबोध देते हैं कि यज्ञ इस तरह से होता तुम्हारा कभी का कल्याण हो जाता। तप रूपी ज्योति, जीव अग्नि कुंड है, मन, वचन और काया कुड़छियां, कर्म ईंधन, संयम प्रवृत्ति शांतिपाठ है, चारित्रररूप यज्ञ अनुष्ठान से हवन करता हंू, जो ऋषियों के लिए प्रशस्त है।
तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले यज्ञ कर्मबंधन ही करेगा, निर्जरा नहीं। तप और संयम का कितना महत्व है। चाहे जिस जाति आौर कुल में उत्पन्न होकर भी आत्मा अपना कल्याण कर सकती है।
साध्वी उन्नतिप्रभा ने आयंबिल ओली आराधना के आठवें दिन पंचपरमेष्ठी आराधना का में श्रीपाल चारित्र का श्रवण कराया। जिसमें श्रीपाल चिंतन में है कि मैनासुंदरी को दिए वचन का चिंतन करते हैं और सभी के साथ प्रस्थान करते हैं।
धर्मसभा में इचलकरंजी से स्वाध्याय मंडल से महिलाएं दर्शनार्थ उपस्थित हुई। दोपहर में बड़ी साधु वंदना की परीक्षा हुई। प्रात: पुच्छिशुणं सम्पुट साधना में भाग लेनेवालों के लिए ड्रा निकाला गया। रात्रि 8 से 9 बजे तक नवकार महामंत्र का सजोड़े जाप किया गया। धर्मसभा में अनेकों श्रद्धालुओं ने उपवास, आयंबिल आदि तपस्याओं के पच्चखान लिए। धर्मसभा में चातुर्मास समिति के पदाधिकारियों सहित अन्य स्थानों से भी श्रद्धालुओं की उपस्थिति रही।
13 अक्टूबर को आयंबिल ओली का अंतिम दिन, शरद पूर्णिमा पर तप, धर्म, सामायिक के साथ रात्रि जागरण किया जाएगा। दक्षिण भारत स्वाध्याय संघ की ओर से सम्मान समारोह आयोजित होगा।